50% महंगी हो गई बनारसी साड़ियां:3 महीने में दोगुने हो गए रेशम-जरी के दाम, डिमांड भी आधी, बंद होने लगे हथकरघे

वाराणसीएक वर्ष पहलेलेखक: हिमांशु अस्थाना
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कोविड की दूसरी लहर के बाद 1 लाख रुपए तक की बनारसी साड़ियों का फुटकर दाम 1.50 लाख रुपए तक पहुंच चुका है।

वाराणसी की बनारसी साड़ियां बीते 3 महीने में 50 फीसदी महंगी हो गई है। एक लाख रुपए की साड़ी की कीमत अब 1.5 लाख रुपए तक पहुंच गई है। वजह है कि रेशम और जरी के दाम दोगुने हो गए हैं। चीन से मंगाया जाने वाला रेशमी धागा अब 3 हजार रुपए किलो से बढ़कर 5400 रुपए किलो हो गया है। साड़ियों की बढ़ती कीमत के कारण अब इसकी डिमांड भी कम होने लगी है।

कारोबारियों का कहना है कि अप्रैल 2021 के बाद से बनारसी साड़ियों की मांग आधी हो चुकी है। 60 फीसदी हथकरघे भी बंद हो गए हैं। हैरानी की बात है कि यह बदलाव महज 3 महीने में आए हैं। कोविड के बाद चाइनीज़ रेशमी धागा का महंगा होना भी इसका बड़ा कारण रहा है।

अमरेश प्रसाद कुशवाहा।
अमरेश प्रसाद कुशवाहा।

बनारसी साड़ी की कढ़ुआ तकनीक पर अब महज 1 हजार लोग करते हैं काम
वाराणसी के रामनगर स्थित अंगिका हथकरघा विकास उद्योग सहकारी लिमिटेड के प्रमुख अमरेश प्रसाद कुशवाहा का कहना है कि बनारसी साड़ी जिस कढ़ुआ तकनीक पर बनती है, उसे जानने वाले आज इस शहर में महज 1000 लोग ही बचे हैं। यह काशी की संस्कृति पर गहरी चोट है।

बनारसी साड़ी बुनाई करने वाले हथकरघे।
बनारसी साड़ी बुनाई करने वाले हथकरघे।

चीन के बजाय बेंगलुरु से मंगाते हैं रेशमी धागा
अमरेश कुशवाहा बताते हैं कि अब चीन के बजाय बेंगलुरु के NSDC से रेशमी धागा मंगाते हैं। इस साल कोविड की पहली लहर से पहले रेशमी धागा का रेट तीन हजार रुपए प्रति किलो था, जो कि अब बढ़कर 5400 रुपए किलो पर आ चुका है। वहीं, पॉवरलूम पर बनने वाली साड़ियों के लिए सिंथेटिक यार्न 500 से हजार रुपए में बिक रहा है।

बनारसी साड़ी में इस्तेमाल होने वाली गोल्ड कोटेड जरी का रेट 6 हजार से बढ़कर 11 हजार रुपए प्रति किलो हो गया। इसमें भी प्योर जरी का दाम 44 हजार से 65 हजार रुपए पर पहुंच गया है। सबके रेट बढ़े मगर साड़ियों में इस्तेमाल होने वाले कलर का रेट और बुनकरों के पे-स्केल में कोई बढ़ोतरी नहीं आई है। इसलिए हथकरघों में काम करने वाले कारीगर यह काम छोड़ रहे हैं।

ताना-बाना चलाते बुनकर।
ताना-बाना चलाते बुनकर।

80 फीसदी मांग अब दक्षिण भारत में
कोरोना की दूसरी लहर ने बनारसी साड़ी की सांस्कृतिक कलेवर को भी खत्म कर रहा है। कभी बनारस के लोगों के अर्थव्यवस्था की धुरी ही बनारसी साड़ी होती थी। आज ज्यादातर बुनकर और कारोबारी दूसरे धंधे में लग चुके हैं। बनारसी महज बाजार का आधार नहीं, बल्कि एक अनोखी कला और राजा-महाराजा के शान-ए-शौकत की निशानी भी थी। हालांकि आज भी बनारसी साड़ी की 80 फीसदी बिक्री दक्षिण भारत के राज्यों में है।

गोल्ड कोटेड जरी की बनारसी साड़ी बुनते हुए कारीगर।
गोल्ड कोटेड जरी की बनारसी साड़ी बुनते हुए कारीगर।

6 महीने तक लग जाता है एक साड़ी बनाने में
अंगिका सोसायटी में अभी 250 रोजाना हथकरघा चलाते हैं, वहीं बनारस के आम बुनकरों को 500 मेहनताना मिलता है तो वे 700 रुपए तक भुगतान करते हैं। 1 साड़ी बनाने में 25 दिन से लेकर 6 महीने तक का समय लग जाता है।

कुछ इस तरह से हुआ नुकसान

  • कच्चे माल में सबसे जरूरी चीनी रेशमी धागा की आपूर्ति में कमी
  • जरी बनाने में इस्तेमाल होने वाले कॉपर का दाम 500 रुपए प्रति किलोग्राम बढ़ गया।
  • इससे रिटेल में बनारसी साड़ियों के दाम में 50 फीसदी वृद्धि आई है।
  • संसाधनों की कमी से समय पर ऑर्डर न देना।
  • बनारसी साड़ी का अनऑर्गेनाइज्ड सेक्टर की तरह से काम करना।
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