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परवरिश:हर बच्चे को बुज़ुर्गों के बचपन से मिलना चाहिए, उनसे वो बहुत कुछ सीख सकते हैं

रचना समंदर2 महीने पहले
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दुनिया बहुत तेज़ी से बदलती है। एक पीढ़ी ने जिन संसाधनों, माहौल, जगहों पर रहकर जीवन बिताया, वैसा अगली पीढ़ी को नसीब नहीं होता। अगर वही जगह भी हो, तो भी क़स्बा, शहर बन जाता है और शहर, महानगर की दौड़ में शामिल होने लगता है। इसी आधार पर लोगों के जीवन, अनुभव और उनकी भावनाएं आकार लेने लगती हैं। बच्चों से माता-पिता अपने बचपन के बारे में तो बातें कर लेते हैं, उसके उदाहरण भी देते हैं, लेकिन दादा-दादी, नाना-नानी के बचपन से अक्सर बच्चे अनजान होते हैं। क्यों ज़रूरी है पीढ़ियों के बचपन का पुल, देखिए -

बैठकर बात करने की तहज़ीब

अक्सर बच्चे पूरे ध्यान से किसी बात को नहीं सुनते। बड़ों से बात करते हुए उन्हें इस बेहद ज़रूरी गुण को विकसित करने में मदद मिलेगी। उछलते-कूदते बच्चे से बुज़ुर्ग बात नहीं कर पाते। जब उनसे बात करने में बच्चे को आनंद मिलेगा, तो वो बैठकर संवाद करने का कौशल सीख जाएगा। बैठकर, सुकून से बातें करने, दूसरे की बात को पूरा होने देने, उसके नज़रिए पर ग़ौर करने, अपनी राय बनाने से पहले दूसरे को समझने जैसे महत्वपूर्ण कौशल बच्चे इन संवादों के ज़रिए सीख जाएगा।

दादा जी ने धैर्य को जाना है

बुज़ुर्गों के बचपन में हर मांग तुरंत पूरी नहीं हो जाती थी। उन्हें धीरज रखते हुए, सही उम्र और वक़्त का इंतज़ार करना पड़ता था। इस कक्षा में आओगे तो साइकल मिलेगी, इस आयु में निजी घड़ी बांध सकोगे। यहां तक कि तस्मों वाले ऐसे जूते या सैंडिल जो बाहर पहने जा सकें, स्कूल पूरा होने के बाद ही मिल पाते थे। उस उम्र और वक़्त का उस समय के बच्चे धीरज धरकर इंतज़ार करते थे और जब उस इच्छित वस्तु को पाते थे, तो जो प्रसन्नता महसूस करते थे, उसका बयान शायद वे अब कर पाएं।

वस्तुओं को पाने के लिए जिस धीरज की ज़रूरत होती है, वो बच्चे अपने बड़ों के उदाहरणों से समझ सकते हैं।

खेलों की दुनिया जो उन्होंने बनाई

दादा-दादी, नाना-नानी, बड़ी बुआ दादी ये सब अपने बचपन में कभी इस जुमले को जानते ही नहीं थे कि ‘मैं बोर हो रहा/रही हूं’। इनको तो दिन के घंटे कम पड़ते थे, गर्मी की छुटि्टयां दो माह की होने पर भी कम लगती थीं क्योंकि अपनी दुनिया को जानने-समझने, उसी में से अपने खेल बना लेने से ही इनको फुर्सत नहीं थी। इनके खेलों के बारे में बच्चे जानेंगे, तो समझेंगे कि मनोरंजक खेल दुकानों पर या ऑनलाइन नहीं मिलते। इन्हें तो मैदानों और आंगनों में पाया जा सकता है। बच्चे अपनी दुनिया को बेहतर आंक सकेंगे।

ख़ुद को व्यस्त रखने, लगातार सीखते रहने, बड़ों की मदद करने में भी किसी खेल-सा हर्ष पाने जैसी बातें बच्चों को पता चलेंगी।

दोस्तों के घर भी अपने ही घर थे

तब अंकल-आंटी नहीं थे। चाचा-चाची, मामा-मामी वाले रिश्ते दोस्तों के घरों से भी हुआ करते थे। दोस्ती दो बच्चों में नहीं, दो परिवारों के बीच हो जाती थी। उनमें से कितनों से तो शायद बुज़ुर्ग आज भी जुड़े होंगे और उनके नाती-पोतों के नाम तक जानते होंगे। दोस्ती की समझ और रिश्तों का निबाह, बड़ों से सलीक़े से बात करने की समझ, दोस्त के पिता ही नहीं उनके तमाम रिश्तों का भी मान करना वो पीढ़ी जानती थी। केवल दोस्त से नहीं, बल्कि उसके परिवार से अपने परिवार को जोड़ना, दोस्ती की क़द्र करना, उनसे पारिवारिक मैत्री बनाए रखने के जीवनोपयोगी कौशल बच्चे को मिल जाएंगे।

... वो भी एक दौर था

बुज़ुर्गों के बचपन की गवाही देते बहुत सारे निशान तो शायद न मिल सकें, लेकिन उनके दौर के होने का विश्वास बच्चों को हैरत से भर सकता है। नदियों से नज़दीकी, कुंओं पर नहाना, पेड़ों पर सरलता से चढ़ जाना, झूले बांधना और झूलना जैसे अनेक दृश्य या गतिविधियां अब बच्चों को नज़र भी नहीं आतीं। वे बातें सुनेंगे, कल्पना करेंगे, तो सृजनात्मक होंगे। जो देखा नहीं, उसकी कल्पना करना एक ज़रूरी ख़ूबी है, जो क़िस्सों, कहानियों, अनुभवों के नज़दीक ले जाती है। कला पक्ष इससे मज़बूत होता है।

अभिभावक मदद करें

अगर बच्चा ख़ुद बड़ों से बात करने की कोशिश न करे, तो अभिभावक मदद कर सकते हैं। वे अपने माता-पिता के जीवन को रोचकता से बयान करें और बच्चों से कहें कि वे दादा-दादी से ही जानें उनके बचपन के बारे में। बुज़ुर्गों के गुज़रे वक़्त को लेकर मज़ाक़ कभी न बनाएं। इससे बच्चे भी उनके जीवन की अहमियत को नहीं समझेंगे।

जैसे आप अपने बड़ों से व्यवहार करते हैं, वैसे ही बच्चे भी करेंगे। आपने अपने बड़ों के जीवन की महत्ता को समझा है, तो बच्चे भी उसको जानने में रुचि बनाने लगेंगे।

हो सके तो बच्चों को लेकर बुज़ुर्गों के स्कूल, उनके गांव, उनके जैसे माहौल में जाएं। उनके दोस्तों से मिलवाएं। इससे बच्चे अपने दादा-दादी के बचपन को बुज़ुर्ग रूप में देखकर रोमांचित होंगे।