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थुरा के पास भंकलपुर, नानी का घर, सोच के ही दिल में कैसी गुदगुदी होने लगती है। कोई रोक- टोक नहीं, ख़ूब खाओ मस्त रहो। बाड़े में लाइन से लगीं खटियां, नाना का हुक्का, नानी का पानदान और सुबह -सुबह कंडे थापने की पट- पट की आवाज़, मामा का गमछा, मामी का बेल का शर्बत और वह घूंघटे के भीतर से प्यारी सी आवाज़, ‘लल्ली उठो भोर हो गई।’ कबड्डी में बच्चों की चिल्ल पों ... ‘होल कबड्डी ताल- ताल- ताल- ताल तेरी मूंछें लाल लाल’ क्या मज़े ही मज़े होते हैं ननसार में। ननसाल यानी नानी का भरपूर प्यार। ... आख़िरी परीक्षा वह भी गणित की, इतना ग़ुस्सा आता कि आशा बहनजी इसे पहले भी करा सकती थीं, पर नहींं पूरे हफ़्ते का गैप कर दिया वर्ना नानी के घर परसों ही चले जाते। हमारी अम्मा (दादी) कुछ ज़्यादा ही खांसने लगती हैं उन दिनों पापा को देखकर। खकारना तो उनकी आदत में आ गया था। बुआ मय परिवार के आ जातीं। हम लोग नानी के घर ना जाएं, बस यही उपक्रम करना उनका शौक हो गया। उन दिनों मैं, कुन्नी और छोटा भैया मदन ज़रा-सा किसी का इशारा होता, फटाक से काम कर देते ताकि नानी के घर जाने में कोई व्यवधान ना आए। रोज़ सवेरे दादी के लिए पूजा के फूल, दादू को अख़बार, चश्मे के साथ पकड़ाना, सब बिना कहे करते। ... आख़िर वह सुहाना दिन आ ही गया। नारायण तांगेवाला दरवाज़े पर खड़ा हमारे सामान का इंतज़ार करने लगा। ‘बाबूजी, गाड़ी आधा घंटा देरी से चल रही है। आप लोग आराम से चलिए, कोई जल्दी नहीं।’ ‘अरे भैया, रेल के फाटक का भरोसा नहीं है, जी. टी. के आने का वक़्त हो गया है, कहीं बंद हो गया तो समझो गाड़ी छूटी।’ ‘हां बाबूजी, ठीक बात है।’ ‘अरे चलो भाई, जल्दी करो।’ मैं, कुन्नी और भैया आगे बैठ गए। पापा-मम्मी पीछे। अब हमारा हंसना चालू। नारायण के घोड़े की लीद की बदबू ने पूरा माहौल भर दिया पर वह बदबू भी गुलाब के इत्र-सी लगने लगी। कल्पनालोक में नानी के घर की याद में खो गए थे। फिर एक-दूसरे को कोहनी मार के हंंस दिए। स्टेशन पहंचे। हमने सुराही का स्टैंड पकड़ा और पापा ने बक्सा थामा और बिस्तरबंद लिया चल पड़े। भार समझकर बोल पड़े, ‘डेढ़ महीने के लिए कितना सामान भर लिया है तुमने रानी! मायके में क्या बिस्तर नहींं मिलेंगे? ख़ैर! छोड़ो बहस से क्या फ़ायदा।’ ‘आपके और मेरे व बच्चों के अच्छे कपड़े बक्से में हैं, बाकी रोज़ाना के कपड़े बिस्तरबंद में ठूंस दिए हैं।’ ‘ठीक है कोई बात नहीं।’ अभी गाड़ी चले कुल आधा घंटा ही हुआ होगा कि मदन बोला, ‘मम्मी भूख लग रही है।’ उसका कहना था कि तुरंत पिटारा खुल गया। पूरी आलू जीरा, आम का अचार पूरे डिब्बे में सूंघ भर गई। पापा बोले, ‘रानी मुझे भी दो पूरी दे दो।’ अब जब पापा जी खा रहे हों तो बच्चे जी कैसे पीछे रहेंगे। सब के सब लग गए खाने में। मज़े लेते जा रहे थे बाहर के मनोरम दृश्यों के। कभी बगीचे, अमराई, तो कभी ऊंचे-ऊंचे गोबर के भिसौरे, काली घटाएं, बैल गाड़ी, भैंसें, नज़दीकी गांव और फिर पुल आ गया। मम्मी ने एक बार और पूछा, ‘और खाना है क्या या बंद करूं टोकरी?’ सब छक चुके थे। आख़िर नानी का घर आ ही गया और हमारी कुदाल शुरू। नाना के पैर छुए, नानी ने भरपूर चूमा, ‘सारे बच्चे कैसे लट गए हैं। रानी तेरे तो हड्डे निकल आए हैं’ नानी ने प्यार में दो-तीन डॉयलॉग पेल दिए। इधर की गपशप छोड़ कुन्नी के साथ अपन तो निकल लिए अमराई में। कच्ची अमियां भरी झोली में, कुछ कुन्नी की फ्रॉक में और चल दिए जैसे कोई फतह करके आ रहे हों। फिर वो बचपन की व्यस्तताएं। वो संवाद, जो दिन ख़त्म हो जाए, पर बात ख़त्म ना हो। ना ननसार का रोमांच। ‘ऐ कुन्नी चल गिल्ली डंडा खेलते हैं।’ ‘मुझे ना आता गिल्ली डंडा, ये तो लड़कों के खेल है।’ अच्छा चल कुदन्नी खेलें, तू चॉक से ज़मीन पर पाड़ दे।’ ‘धपरी के धपरा, फोड़ खाए खपरा मियां बुलाए, सरपट आए राजा की भींत गिरी अररररर अररररर धूं।’ ‘लंगड़ी कल खेलेंगे। अब अंधेरा हो चला है, नाना ग़ुस्सा करेंगे। पूरे डेढ़ महीने रहना है।’ ‘जिज्जी, पीछे बाऊन्ड्री वाले पेड़ पे भूत रहता है। मौसी कह रही थीं वहां मत जइयो।’ ‘ना, नानी कह रही थीं चुड़ैल रहती है, रात को सफेद धोती पहन के आती है, उसके पैर उल्टे हैं। मैं कल जाऊंगी चुड़ैल से मिलने।’ ‘मना किया है नानी ने हम तो नहींं जाएंगे।’ ‘तू मत जइयो डरपुक्की!’ नानी ने बाड़े में लगे नीम के पेड़ पर झूला डलवा दिया था। कुन्नी जैसे ही झूले की पटली पर बैठी नानी का गाना चालू--ब्रज भाषा में ‘देखो री मुकट झोके ले रह्यो कौन की भीजे आली चूनरी कौन विरन सूई पाग...देखो री मुकट’ ‘नानी ये वाला हमसे नहीं आता।’ ‘अच्छा तो तू अपना वाला गा लेना...’ ‘कच्चे नीम की निबौरी सावन जल्दी अइयो रे...’ झूला झूलने की बेताबी बढ़ गई है। सवेरा कब होगा जाने? फिलहाल तो शाम पड़ी है और नानी के हाथ के भोजन का इंतज़ार है। और साथ में जारी है हमारी और नानी की बातचीत। नानी ‘ले गीता ले छाछ पीले। कुन्नी गिलास ले आ। मदन, तू तो खाने बैठ गया।’ ‘नानी मक्खन का लोंदा आज मैं खाऊंगा।’ नानी समझा रही हैं, ‘दाल बनेगी उसमें डाल के खइयो। बैंगन का भर्ता, पुदीना-अमियां की चटनी, राबड़ी, आम का पन्ना। कल ही जौ का सत्तू पीसा है, ठंडक देता है।’ गीता- ‘नानी अभी से मुंह में पानी आ गया।’ नानी- ‘अब तुम लोग जी भर के खाओ, मोटे होकर जाना दादी के, अच्छा!’ मदन- ‘मम्मी वह देखो गुलाब के लच्छे वाला आ गया, दिला दो।’ ‘ हां देदे भैया! रानी खाने दे जी भर के।’ ‘नानी ये क्या हैं?’ ‘चपेटे हैं तेरी मां और मौसी खेला करें थीं। और लड़-लुड़ा के बैठ जाती थूथड़ी फुला के।’ ‘आप मार नहीं लगातीं थीं नानी?’ ‘नहींं, मैं कन्या पर हाथ ना चलाती, पर तेरा मामा खूब पिटा मेरे से।’ ‘नानी मां और मौसी के बचपन के किस्से सुनाइए बड़ा मज़ा आ रहा है।’ ‘एक बार तेरे नाना सो गए और खर्राटे भरने लगे। रानी ने आव देखा ना ताव ये देखने के लिए कि आवाज कहां से आ रही है नाना की नाक में उंगली डाल दी, हा हा हा’ ‘फिर -फिर...? ‘नाना भैरा के उठ बैठे, रानी की सुट्टी-पुट्टी गुम्म...’ ‘मम्मी इतनी शैतान थीं?’ ‘ये शैतानी नहीं है पगली, तभी तो आज इतनी बड़ी डॉक्टर बनी है। इसको कहते हैं खोज, जिज्ञासा।’ ‘वाह नानी।’ एक दिन जैसा नहीं होता हर दिन। लेकिन ननसार का हर दिन प्रिय, हर लम्हा यादगार। वक़्त की यात्रा, भले कितने ही प्यारे दौर से गुज़रे, रुकती कहां है। देखते-देखते छुटि्टयां समाप्ति पर। नानी ने एक पीपा घी, चना, मटर, बेर का चूरन, राई, लभेड़े, टेंटी और आम का अचार, बड़ियां, पापड़, आलू के चिप्स, हम सबके कपड़े और ना जाने क्या-क्या संग बांध दिया। ना चाहते हुए भी हम पुन: चल दिए वहीं जहां से आए थे।
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