हम में से कितने ही लोगों के परिवारों में बुज़ुर्गों को अब भी अपने बुज़ुर्गों के सुरक्षित साए में बिताया समय याद होगा। तब दिन ही नहीं, वर्ष भी नहीं, पीढ़ियां जैसे पल में बड़ी हो जाती थीं। जैसे-जैसे परिवार बढ़ता, पुराने मकानों में नए हिस्से जुड़ते जाते। न सुरक्षा की कमी लगती और न ही मन के सहारों की।
फिर आजीविका, बदलाव और देखा-देखी के प्रभाव ने जड़ें जमाना यूं शुरू किया कि पुराने मज़बूत वृक्षों की जड़ों में जैसे मट्ठा पड़ गया हो। निजता और अमीरी ऐसे लालच थे जिनकी तलाश में बड़े परिवार बिखर गए। उनकी किरचें बड़ों को चुभीं, लेकिन उनके मुंह कभी ममता के वास्ते ने, तो कभी महत्वाकांक्षाओं ने बंद कर दिए।
टुकड़ों में क्या दम होता
मज़बूत आधार के जब टुकड़े बिखरे, तब किसी को अंदाज़ा नहीं था कि इनका वजूद पल-बस कर खड़ा हो पाएगा भी या नहीं। लेकिन सोचने की बात है, टुकड़े कितने मज़बूत हो सकते थे? इनके किनारे और भी झड़ते रहे। अकेलेपन ने नई तरह के सन्नाटों और सूनेपन को दावत दी।
आज क्या हाल है?
छोटे परिवार, अकेले पिता या अकेली मां वाली व्यवस्था में टूटने लगे हैं। यहां माहौल ख़ामोश है लेकिन मन में व्याप्त तूफ़ानों ने परिवार जैसे किसी वजूद को ही ख़त्म कर दिया। बच्चे अकेले किसी होस्टल या कमरे में रह रहे हैं, जहां का किराया और पढ़ाई का ख़र्च कोई अभिभावक उठाता है। त्योहार किसी दोस्त के साथ मनाए जा रहे हैं। संतानविहीन रहना विकल्प की तरह उभरा है। एकल परिवार अपने बच्चों के साथ छुटि्टयों में पुश्तैनी घर या बड़ों की तरफ़ रुख़ नहीं करते, लड़के-लड़कियां शादी को 30-32 साल की उम्र तक टालते हैं, बच्चों के पास उनकी समस्याएं हैं, लेकिन कोई सुनने-समझने या स्नेह से सिर पर हाथ फेरने वाला बुज़ुर्ग नहीं है।
एक नज़र दुनिया पर भी डाल लें...
अमीरी का राज़, एकजुटता की कमी
जहां एकल परिवार हैं, उन देशों को अमीर राष्ट्रों में जगह मिली है। यह चौंकाने वाला आंकड़ा है, लेकिन आंकड़ा तो है। जिन देशों को बेहद अमीर कहा जाता है, जैसे डेनमार्क और फिनलैंड, यहां परिवार बहुत छोटे हैं। हम अमेरिका की समृद्धि को भी नज़ीर मानते हैं। हालांकि, इसके नतीजे भी सामने आने लगे हैं। वहीं अफ्रीका जैसे देशों में बहुत कम लोग अकेले रहते हैं। हम अपने देश के परिवारों को भी उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं कि हमारे आसपास, अपने परिवार या परिचितों में परिवारों का स्वरूप कैसा है।
आंकड़े क्या कहते हैं?
‘द अटलांटिक’ में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक़ ‘जब आप एकल परिवारों की अधिकता को अमीरी या प्रति व्यक्ति आय से जोड़ते हैं, तो इसके दो कारण नज़र आते हैं। पहला, बाज़ार चाहता है कि आप परिवार को छोटा रखें ताकि आप ज़िम्मेदारी के बोझ तले न दबे रहें और आराम से स्थानांतरण कर सकें। दूसरी बात, जब कोई इंसान ऐसे माहौल में परवरिश पाकर बड़ा होता है, तो वो प्रायवेसी पाने के लिए पैसा ख़र्च करने को तत्पर रहता है।
जो धनाढ्य हैं, उनके लिए यह स्थिति कारगर साबित होती है। वे लम्बे घंटों तक काम कर सकते हैं, उनके ऊपर परिवार को देने के लिए समय निकालने का कोई दबाव नहीं होता क्योंकि सब अपनी-अपनी ज़िंदगी जीते हैं। ऐसे लोग उन कामों को करने के लिए लोगों को नौकरी पर रख सकते हैं, जो काम परिजन ख़ुशी-ख़ुशी कर देते हैं। लेकिन बदले में मिले अकेलेपन, तनाव, अवसाद और रोगों ने अब इस ‘समृद्धि’ को प्रश्नों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है।’
अकेले हैं, तो बहुत ग़म हैं!
‘जो इतने सौभाग्यशाली नहीं हैं कि बहुत धन कमा सकें, उन्हें अकेले रहने की देखादेखी ने कहीं का नहीं छोड़ा है। पहले एकल हुए और फिर एकल में भी अभिभावकों की अदला-बदली (जिसे अमेरिकी मेरी गो राउंड परिवार कहते हैं) ने बच्चों के मन-मस्तिष्क पर बहुत बुरा असर डाला, बुज़ुर्ग अकेले रहने व सन्नाटे में जीते हुए मौत का इंतज़ार करने को विवश हुए।’
लेख के ये अंश कुछ हद कर अपने देश की मौजूदा सामाजिक व्यवस्था जैसे नहीं लगते?
सारी असमानताएं दुखद हैं, लेकिन परिवार की असमानता सबसे त्रासद है।
जहां तक पैसे कमाने, अकेले रहकर धनी होने वाला मिथक था, वह भी टूट गया। धन तो बहुत कमाया लेकिन बच्चों के लिए सुरक्षित दुनिया तो छोड़िए, सुरक्षित घर भी नहीं बना पा रहे हैं। सूनेपन से भरे घरों में पले बच्चे एकाग्रता में कमी, समर्पण का अभाव और तालमेल न बना पाने की कमियों के चलते अच्छे कर्मचारी नहीं बन पा रहे हैं।
आज दुनिया के कई देश उस खुले स्थान की तलाश कर रहे हैं, जो कभी परिवारों को मिलने-जुलने का अवसर देता था, परिचय बढ़ाता था और एक-दूजे के साथ का मज़बूत सुकून देता था।
विश्व परिवार दिवस पर प्रयास हो कि हम भी संयुक्त परिवार के पूर्व स्वरूप की ओर लौटें।
जब परिवार जुड़े थे
तब कमी लगती थी
लाभ क्या थे
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