पिछले दिनों एक बच्चा मुझसे अपनी हिंदी की पाठ्यपुस्तक से कुछ कविताएं समझने के लिए आया। पुस्तक में ‘आत्मत्राण’ शीर्षक से भी एक कविता थी जो वास्तव में रवींद्रनाथ ठाकुर के एक बांग्ला गीत अथवा कविता का हिंदी अनुवाद है। इसे प्रार्थना कहें तो अधिक उपयुक्त होगा। ये कवि रवींद्र की विश्वप्रसिद्ध कृति गीतांजलि में भी संकलित है।
इस रचना की बांग्ला भाषा में प्रारंभिक पंक्तियां हैं-
‘बिपदे मोरे रक्षा करो ए नहे मोर प्रार्थना, बिपदे आमि ना येन करि भय’।
अर्थात- ‘हे प्रभु! विपत्तियों में मेरी रक्षा करो मेरी ये प्रार्थना नहीं है अपितु विपत्तियों में मैं भयभीत न होऊं मुझे केवल यही वरदान दो।’
कवि आगे कहता है-
‘हे ईश्वर! मेरे पीड़ा से व्यथित चित्त को सांत्वना दो मैं ये नहीं कहता
पर अपने दुखी चित्त पर विजय पा सकूं ऐसा आशीर्वाद अवश्य दो।
संसार-सागर में डूबने से मुझे बचा लो मैं ऐसा नहीं चाहता
मैं तो बस संसार-सागर में तैरते रहने की शक्ति मांगता हूं।’
और अंत में कवि की प्रार्थना है कि
‘हे प्रभु! मैं दुखों के समय तुझ पर संशय न करूं
अपितु तुझ पर मेरा विश्वास अडिग रहे ऐसा वरदान दो।’
शांतचित्त के शब्द हैं प्रार्थनाएं
प्रार्थना वास्तव में हमारी इच्छाओं अथवा मनोभावों का ही एक रूप है। जब हम शांत-स्थिर होकर उन्हें अपने मन में अथवा बोलकर दोहराते हैं तो हमारी वही इच्छाएं प्रार्थना का रूप ले लती हैं। हर धर्म, हर भाषा में प्रार्थनाएं मिलती हैं। कमोबेश सभी प्रार्थनाओं का स्वरूप एक जैसा ही होता है। स्कूलों में गाई जाने वाली प्रार्थनाओं में प्रायः सद्बुद्धि और विद्या प्राप्ति की याचना की जाती है। साथ ही विश्वास को दृढ़ करने की बात की जाती है। प्रात:कालीन प्रार्थना चित्त को शांत और एकाग्र करती है।
प्रतिध्वनित होती हैं प्रार्थनाएं
वास्तव में हमारे भाव ही प्रार्थना होते हैं, बेशक हम उन्हें मुख से उच्चारित करें या न करें। और यदि भावों की बात करें तो भाव हमारे मन में उत्पन्न होते हैं। प्रार्थना का अर्थ है मन में विशेष भावों को उत्पन्न करना। हमारे भाव ही पूर्णता को प्राप्त होते हैं। हमारे मन में जैसे भाव होते हैं, वे ही प्रार्थना बनकर प्रकट होते हैं और वास्तविकता में परिवर्तित हो जाते हैं। यदि हम नकारात्मक प्रार्थना करते हैं तो वे भाव भी हमारे जीवन की वास्तविकता बन जाते हैं। जब दूसरों के कल्याण की कामना अथवा याचना करते हैं तो हम अपना कल्याण सुनिश्चित कर लेते हैं। इसीलिए हमारे यहां वैदिक काल से ही लोक-कल्याण की भावना से युक्त प्रार्थनाएं ही मिलती हैं, जैसे सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः।
हम जैसी कामना करते हैं, वही लौटकर वापस हम तक आती है। इसी कारण नकारात्मक शब्दों के उपयोग के लिए मना किया जाता है। जैसे कहते हैं कि ‘हमारा अहित न हो’ तो इसमें अहित की गूंज अधिक होगी और उसके घटित हो जाने की संभावना होगी। ‘सबका भला हो’, ‘हम प्रसन्न रहें’ जैसे सकारात्मक भाव अपनी गूंज में भलाई लेकर आते हैं।
कैसी हों हमारी प्रार्थनाएं
शक्ति की कामना
आम प्रार्थनाओं में समृद्धि प्रदान करने और संकटों से बचाने की बात की जाती है। गुरुदेव की प्रार्थना की प्रारंभिक पंक्तियों में ही व्यक्त किया गया है कि दुख या संकट से लड़ने की शक्ति मिलने की अनुनय की जाए। मनुष्य प्रतिकूल परिस्थितियों में अधिक सीखता है। जब तक हमारे सामने कोई समस्या नहीं आती हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। मनुष्य परस्पर विरोधी स्थितियों में संतुलन द्वारा अपना विकास करता है।
यदि जीवन में विफलताएं नहीं आएंगी तो सफलता का मार्ग भी प्रशस्त नहीं हो सकता। यदि हमने किसी वस्तु का अभाव अनुभव नहीं किया होगा तो उसके मिलने पर हमें अपेक्षित आनंद भी नहीं मिल पाएगा। यदि संघर्ष के बिना जीवन में असीम सुख और समृद्धि मिल जाए तो हम न केवल उससे ऊब जाएंगे अपितु जीवन में सक्रियता भी समाप्त हो जाएगी और हम निष्क्रिय जीवन जीने के अभ्यस्त हो जाएंगे। अब इससे निकृष्ट स्थिति और क्या हो सकती है?
चलते रहने की कामना
हमें ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए जिसमें सक्रिय जीवन जीने की कामना की गई हो। अधिकांश लोग ये चाहते हैं कि बुढ़ापे में उनके बच्चे उनकी सेवा करें। कुछ लोग अपने बच्चों से प्रायः ये कहते भी रहते हैं कि बुढ़ापे में जब हम बीमार हो जाएं तो हमारी सेवा करना। कई बार उनका ये विचार उनकी उत्कट कामना में परिवर्तित हो जाता है और उन्हें सचमुच दूसरों की सेवा की आवश्यकता पड़ जाती है। हम ऐसी बातें अपने मन में ही क्यों लाएं? क्या हम ये कामना नहीं कर सकते कि हम अंतिम समय तक न केवल स्वस्थ व सक्रिय बने रहें अपितु दूसरों की मदद भी करते रहें? हमें केवल ऐसी ही प्रार्थना करनी चाहिए कि हम सदैव स्वस्थ रहें और किसी पर बोझ न बनें और ये तभी संभव है जब जीवन में पर्याप्त सक्रियता हो।
राह का आनंद लेने की चाह
जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं, आएंगे ही। यही इस राह का सौंदर्य है। यहां जितना प्रगति का आनंद लिया जाए, उतना ही उसे खो देने के समय में हौसला रखा जाए। कामना हो कि ईश्वर पर हमारा विश्वास अक्षुण्ण बना रहे। ईश्वर पर दृढ़ विश्वास न केवल हमारी मनोदशा को सकारात्मक बनाने में सक्षम होता है अपितु इससे हम आशावादी भी बने रहते हैं। इन मनोभावों से युक्त व्यक्ति विपत्तियों में भी धैर्य नहीं खोता और परिणामस्वरूप जीवन में निरंतर आगे बढ़ता रहता है। हमारे अंदर का ईश्वर हमें कभी हारने नहीं देता। वह विषम से विषम परिस्थिति में भी कोई न कोई रास्ता निकाल लेता है।
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