एक राजा की बड़ी प्रसिद्धि थी। उनकी एकमात्र पुत्री अत्यंत धर्मपरायण और वैराग्यपूर्ण भावनाओं से ओत-प्रोत थी। उसकी इस प्रकार की भावनाओं को ध्यान में रख कर राजा ने उसका विवाह किसी विरक्त फकीर के साथ करने का निश्चय कर लिया था। सौभाग्य से उसको एक फकीर का पता भी मिल गया और उन्होंने उस फकीर के साथ अपनी एकमात्र कन्या का विवाह कर दिया।
राजा प्रसन्न थे कि उन्होंने अपनी पुत्री को ठीक स्थान पर भेजा है, वहां उसकी भावनाएं कुंठित नहीं होंगी, जागृत रहेंगी।
विवाह हुआ और राजा की पुत्री अपने फकीर पति के साथ रहने के लिए उसकी कुटिया में आ गई। कुटिया मेंं पहुंचकर वह उसकी सफ़ाई करने लगी। उसने देखा कि कुटिया के छप्पर से एक छींका लटका हुआ है। उसने उसको उतारा तो पाया कि उसमें दो रूखी-सूखी रोटियां पड़ी हुई थीं। उसको बड़ा आश्चर्य हुआ और अपने पति से पूछा ही लिया, ‘ये रोटियां यहां क्यों रखी हैं?’
फकीर सकपका-सा गया। बोला, ‘दो रोटियां हैं, कल हम दोनों मिल कर एक-एक रोटी खा लेंगे, दिन निकल जाएगा।’
पति की बात सुन कर पत्नी को सहसा बड़ी हंसी आ गई। उसने कहा, ‘मेरे पिता ने तो आपको वैरागी और अपरिग्रही फकीर समझ कर ही मेरा विवाह आपके साथ कर दिया था। किंतु मैं देख रही हूं कि आपको तो कल के खाने की चिंता आज से ही सताने लगी है। जिसको इस प्रकार की चिंता सताती है वह सच्चा फकीर नहीं हो सकता।’
अगले दिन की फिक्र घास खाने वाले पशु भी नहीं करते, न पक्षी ही अगले दिन के लिए कुछ संजो कर रखते हैं, जबकि उनके लिए कुछ निर्दिष्ट भी नहीं। फिर हम तो मनुष्य हैं। मिल गया तो खा लेंगे, नहीं तो आनंद से प्रभु चिंतन में अपना समय बिता देंगे।’
पत्नी की बात सुनकर फकीर की आंखें खुल गईं। वह समझ गया कि उसकी पत्नी वैराग्य में उससे बहुत प्रगतिशील सोच रखती है। वह मन ही मन उसकी प्रशंसा करने लगा और फिर कह उठा, ‘देवी! आज तो तुमने मेरी आंखें खोल दी हैं, मैं तो अंधकार में रह रहा था। वैराग्य का रहस्य अब मेरी समझ में आने लगा है। परमात्मा की कृपा है कि मुझे तुम जैसी पत्नी प्राप्त हुई है। धन्यवाद प्रभु!’
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