बसोहा पहाड़ी त्योहारों का राजा है। प्रथम वैशाख को इसे मनाया जाता है। जैसे हिमाचल के महासु और मंडी क्षेत्र में शिवरात्रि की तैयारी सालभर होती है वैसे ही गद्दी लोग बसोहा की तैयारी वर्षभर करते रहते हैं। खरीफ़ और रबी की नई फ़सल के दाने सबसे पहले बसोहा के नाम पर आरक्षित रखे जाते हैं। नया वस्त्राभूषण भी बसोहा के दिन के लिए आरक्षित रखा जाता है। भेड़-बकरियों के साथ घर से बाहर निकले गद्दी लोग बसोहा के कई दिनों पूर्व से ही घर जाने की तैयारी करने लगते हैं। बसोहा के दिन परिवार का कोई सदस्य घर से बाहर नहीं रहता। दूर-दूर काम के लिए गए गद्दी बसोहा के अवसर पर अवश्य घर पहुंच जाते हैं। घर, शरीर, भांडे, बरतन, वस्त्र, आभूषण की अच्छे से सफ़ाई की जाती है।
घर-घर बनती है पिंदड़ी
गद्दी लोग बसोहा का अर्थ ही घर को स्वच्छ और नए तरीक़े से बसाने से लेते हैं। उस दिन के लिए विशेष प्रकार का भोजन तैयार किया जाता है जिसे पिंदड़ी कहते हैं। ये मूलतः कोदे के आटे की पिन्नियां होती हैं। कोदे के आटे को खौलते हुए पानी में घोलकर ठंडा किया जाता है। तब कुछ गेहूं का आटा मिलाकर गोल पिन्नियां बनाई जाती हैं। इन्हें कुछ समय पड़ा रहने देते हैं और जब उनमें ख़मीर आ जाता है तो घी-शक्कर व शहद के साथ खाते हैं। ऐसा विश्वास है कि इन्हें खाने से पित्त से बचाव होता है। दिन के समय देवर-देवरानी, जेठ-जेठानी, जीजा-साली, ताक में बैठकर चोरी-चुपके से पिंदड़ियां एक-दूसरे के मुंह में रखते हैं। उस दिन विवाहित धी-धियान को अवश्य मायके बुलाया जाता है। लड़की ससुराल में बैठकर निमंत्रण की प्रतीक्षा करती है परंतु जिनके घर में भाई छोटा या पिता नौकरी पर हो तो लड़की (धी) को इस प्रकार स्वयं आने और जाने के लिए कहा जाता है- अमां मेरिए कुरा तुहार आया हो, अमां मेरिए बापू जो सादा भेजे हो, धोए मेरिए बसोहा तुहार आया हो, भाई तेरा निक्का, बापू चम्बे नौकरी, अप्पू ईणा अप्पू जाणा हो।
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