भारतीय संस्कृति में ईश्वर प्राणीमात्र के जीवन का दाता है और जीवन की रक्षा के लिए आवश्यक अन्न, जल और वायु आदि का भी। ईश्वर दिन में सूर्य को प्रकाशित कर जगत को जगमग रखता और जीवन ऊर्जा प्रदान करता है तो रात में चंद्रमा का आकाशदीप रोशन कर न केवल प्रकाश देता है अपितु वन्य औषधियों को अमृत से सींचकर जीवनमय बनाता है। ईश्वर यह सब निष्काम और निःस्वार्थ भाव से करता है तभी यशस्वी है। इसलिए कि तप से सिद्धि, श्रम से धन, बल से भूमि, गुरुसेवा से ज्ञान और भगवत् कृपा से मोक्ष भले मिल जाए किंतु यश केवल दान से ही मिलता है। इस धरती पर जन्म लेने वाले हर जीव की मृत्यु होती है लेकिन एकमात्र दानी है जो मरकर भी अपने यश के कारण अमर होता है। भारतीय पौराणिक कथाओं में ‘देने का सुख’ पाकर जो कई यशस्वी हुए, लेकिन उनमें ये चार बहुचर्चित और परम प्रतिष्ठित हैं–
1. लोक कल्याण के लिए देह दान देने वाले महर्षि दधीचि
लोक कल्याण और दुष्ट के विनाश के लिए आत्मोत्सर्ग करने वालों में दधीचि की समता वाला दूसरा कोई भारतीय इतिहास में दुर्लभ है। उनके पिता का नाम अथर्वा और माता का चिति था। उन्होंने अश्विनीकुमारों को अश्व के सिर से उपदेश दिया था अतः वे अश्वशिर नाम से भी प्रसिद्ध थे। अथर्ववेदी दधीचि ने ही सर्वप्रथम नारायण कवच का उपदेश त्वष्टा को दिया था और त्वष्टा ने विश्वरूप को।
श्रीमद्भागवत महापुराण के छठे स्कन्ध के अनुसार, एक बार देवगुरु बृहस्पति जब इंद्र की सभा में पहुंचे तो ऐश्वर्य मद के कारण इंद्र ने उनकी अवहेलना कर दी। इससे रुष्ट देवगुरु इंद्र सभा से निकल आए और अंतर्धान हो गए। तब असुरों ने गुरुकृपा से रहित देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया।
ब्रह्मा जी की सलाह पर देवताओं ने अपने नए आचार्य के रूप में त्वष्टा के महातेजस्वी पुत्र विश्वरूप का पुरोहित के रूप में वरण किया। विश्वरूप ने देवताओं को नारायण कवच का उपदेश दिया, जिसके बल पर देवताओं ने असुरों से अपना राज्य फिर छीन लिया।
विश्वरूप पुरोहित देवताओं के थे लेकिन असुरकुल से सम्बद्ध माता के कारण असुरों के प्रति भी अनुग्रह भाव रखते थे। इस कारण इंद्र ने क्रोधित होकर उनकी हत्या कर दी। इसी का प्रतिशोध लेने के लिए विश्वरूप के पिता त्वष्टा ने यज्ञाग्नि से वृत्रासुर को उत्पन्न किया था। वह जले हुए पहाड़ के समान काला और विशालकाय था। वृत्रासुर ने देवताओं पर आक्रमण किया और इंद्र को पदच्युत कर सारी सम्पत्ति व तेज का हरण कर लिया। तब इंद्रादि देवता भगवान विष्णु की सलाह पर वृत्रासुर वध के लिए अस्थियां मांगने महर्षि दधीचि के पास पहुंचे।
देवताओं की याचना सुन दधीचि ने कहा–
‘योSध्रुवेणात्मना नाथा न धर्मं न यश: पुमान्।
ईहेत भूतदयया स शोच्य: स्थावरैरपि॥’
अर्थात... देवताओ! जो मनुष्य इस विनाशी शरीर से दुःखी प्राणियों पर दया करके धर्म और यश का सम्पादन नहीं करता, वह जड़ पेड़-पौधों से भी गया-बीता है। यह भी कहा कि–
‘अहो दैन्यमहो कष्टं पारक्यै: क्षणभंगुरै:।
यन्नोपकुर्यादस्वार्थैर्मत्र्य: स्वज्ञातिविग्रहै:॥’
अर्थात... धन, जन और शरीर क्षणभंगुर हैं। ये किसी काम नहीं आएंगे। यह कैसी कृपणता है, कितने दुःख की बात है कि यह मरणधर्मा मनुष्य इनके द्वारा दूसरों का उपकार नहीं कर लेता।
ऐसा कहकर दधीचि ने योगशक्ति से तत्क्षण अपनी देह त्याग दी। फिर उनकी अस्थियां संचित कर विश्वकर्मा ने एक वज्र बनाया और उसके आघात से इंद्र ने वृत्रासुर को मार डाला।
2. देने के सुख का सार जानने वाले दानी राजा बलि
राजा बलि अब तक के ज्ञात इतिहास में सबसे बड़े दाता हैं जिनके द्वार पर साक्षात विष्णु याचक बनकर पहुंचे और दान में त्रिलोकी का राज्य पाया। बलि दैत्यराज थे और भगवतभक्त प्रह्लाद के पौत्र थे। उनके पिता दैत्य होते हुए इतने दानवीर थे कि शत्रु देवताओं के मांगने पर उन्होंने अपनी आयु तक दान कर दी थी। बलि ने भी अपने पिता के संस्कारों पर चलकर दान की पराकाष्ठा की थी।
बलि की दानवीरता की कथा श्रीमद्भागवत महापुराण के आठवें स्कन्ध में सर्वाधिक सुंदरता से चित्रित हुई है। इसके अनुसार, एक बार बलि ने विश्वजित् यज्ञ कर यज्ञाग्नि से एक अजेय रथ, धनुष, दो अक्षय तरकश व कवच प्राप्त किए तथा इनके बल पर इंद्र की राजधानी अमरावती पर असुर सेना के साथ आक्रमण कर दिया। उससे भयभीत हो इंद्र आदि देवता प्राण बचाकर भागे और छुप गए। परिणामस्वरूप बलि ने पहले देवलोक और फिर तीनों लोकों को अपने अधिकार में कर लिया।
तब देवताओं का हित करने तथा इंद्र को खोई हुई सम्पदा लौटाने के निमित्त भगवान ने महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से अवतार ग्रहण किया और वामन रूप धरकर नर्मदा नदी के उत्तर तट पर स्थित भृगुकच्छ नामक स्थान पर पहुंचे, जहां बलि यज्ञ कर रहे थे। भगवान को दिव्य रूप में अपने यज्ञ में देख बलि ने उनका पूजन किया तथा आगमन का मनोरथ पूछा। तब वामन रूप विष्णु ने बलि से मात्र तीन पग धरती मांगी। लेकिन दैत्य गुरु शुक्राचार्य विष्णु को पहचान गए और उन्होंने बलि को दान देने से रोका किंतु बलि दान की प्रतिज्ञा पर अटल थे। तब शुक्राचार्य ने क्रोधित होकर बलि को राज्यलक्ष्मी खो जाने का शाप तक दे डाला किंतु बलि न डिगे।
बलि ने गुरु के शाप को स्वीकारते हुए कहा–
‘श्रेय: कुर्वन्ति भूतानां साधवो दुस्त्यजासुभि:।
दध्यङ्शिबिप्रभृतय: को विकल्पो धरादिषु॥’
अर्थात... जब दधीचि व शिबि आदि महापुरुषों ने अपने परम प्रिय दुस्त्यज प्राणों का दान करके भी प्राणियों की भलाई की है, फिर पृथ्वी आदि वस्तुओं को देने में सोच-विचार करने की क्या आवश्यकता है? कथा कहती है कि एक पग में धरती तथा दूसरे से आकाश नाप लिया। जब तीसरा पग धरने की बारी आई तो बलि ने अपना मस्तक आगे कर दिया। इससे प्रसन्न होकर भगवान ने बलि पर कृपा की और चिरंजीवी होने का आशीर्वाद दिया।
बलि इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि अपने साथ हो रहे छल और गुरु श्राप के बावजूद वे प्रतिज्ञा से न हिचके। इसलिए कि वे यह इस जीवन सार को जान चुके थे कि ‘देना ही सबसे बड़ा सुख है।’
3. शरणागत की रक्षा को प्राण देने को तत्पर राजा शिबि
राजा शिबि बहुसंख्यक पुराणों में महादानी के रूप में सादर उल्लेखित हैं किंतु इनकी मूल कथा महाभारत के वनपर्व में है। वनवास काट रहे पाण्डवाें को महामुनि मार्कण्डेय ने दान की महिमा बताते हुए शिबि कथा सुनाई। शिबि ययाति की पुत्री माधवी के पुत्र थे जो उशीनर को ब्याही थी। अतः अनेक स्थानों पर शिबि का उल्लेख पिता के नाम से संयुक्त होकर उशीनर शिबि भी हुआ है।
वनपर्व के 197वें अध्याय के अनुसार, एक समय देवताओं ने शिबि की श्रेष्ठता की परीक्षा करने का निश्चय किया। इंद्र ने बाज़ का और अग्निदेव ने कबूतर का रूप धरा।
जब बाज़ ने कबूतर का पीछा किया तो प्राणरक्षा के लिए कबूतर शिबि की गोद में आकर बैठ गया। कबूतर ने मनुष्यों-सी वाणी बोलते हुए शिबि से कहा कि ‘मैं वास्तव में एक ऋषि हूं लेकिन अपना पूर्व शरीर इस शरीर से बदल चुका हूं। अब बाज़ मुझे खाना चाहता है। प्राणरक्षक होने से अब आप ही मेरे प्राण हैं और मैं आपकी शरण में हूं। कृपया मुझे बचाइए।’
इसके विपरीत बाज़ ने भी मनुष्यों की भांति बोलते हुए शिबि से कबूतर को छोड़ने के लिए कहा ताकि प्राकृतिक नियम से वह उसे अपना आहार बना सके।
इस पर शिबि ने बाज़ को ऋषभकन्द अथवा वेहत नामक औषधि का पुष्टिदायक आहार सुलभ कराने का प्रस्ताव दिया मगर बाज़ न माना।
बाज़ ने कहा कि या तो कबूतर को मेरे लिए छोड़ दो या फिर अपनी दाईं जांघ से कबूतर के वज़न बराबर मांस काटकर दो। शरणागत की प्राणरक्षा के लिए शिबि ने अपने शरीर का मांस काटा और तौला तो वह कबूतर से कम निकला। राजा ने अपने अंगों को रक्तरंजित कर बार-बार काटा लेकिन तब भी कबूतर का भार ही अधिक निकला। अंत में शिबि स्वयं ही तराजू के दूसरे पलड़े पर जा बैठे।
तब बाज़ बोला कि ‘हो गई कबूतर की प्राणरक्षा’ और वह अंतर्धान हो गया। तब राजा के पूछने पर कबूतर ने अपना और बाज़ का परिचय दिया। बताया कि वह अग्नि है तथा बाज़ के रूप में देवराज इंद्र दोनों मिलकर परीक्षा लेने आए थे।
महाभारत के अनुसार शिबि कहते थे–
‘नैवाहर्मतद् यशसे ददानि न चार्थहेतोर्न च भोगतृष्णया।
पापैनासेवित एव मार्ग इत्येवमेतत् सकलं करोमि॥’
अर्थात... मैं यश के लिए दान नहीं देता। धन या भोग की कामना से भी नहीं देता। बल्कि इसलिए देता हूं क्योंकि इस पर पापी नहीं चल सकते। दान धर्म है, यही समझकर ऐसा करता हूं।
4. जीवन दांव पर लगा दान देने वाले दानी कर्ण
कौरवों का साथ देने के कारण कर्ण निंदित है लेकिन उसकी दानवीरता आज भी उसे यशस्वी बनाए हुए है। कर्ण ने अपना जीवन ख़तरे में जानकर भी ब्राह्मण रूप इंद्र के मांगने पर दिव्य कवच-कुंडल दान कर दिए थे। इस घटना से पूर्व वह राधेय नाम से परिचित था किंतु कवच-कुण्डलों के कर्णन (कर्त्तन) के कारण कर्ण और वैकर्तन नामों से प्रसिद्ध हुआ। वनपर्व में 11 अध्यायों का एक पूरा उपपर्व ‘कुण्डलाहरण पर्व’ के शीर्षक से संकलित है। इसमें कर्ण के जन्म, त्याग और महादान की कथा है। इसके अनुसार, पाण्डवों के 12 बरस का वनवास पूरा होने के बाद जब 13वें बरस का अज्ञातवास प्रारंभ हुआ तब सर्वज्ञ देवताओं को भावी युद्ध का अनुमान हो गया था। युद्ध में अपने पुत्र अर्जुन की रक्षा के लिए इंद्र ने कर्ण के उन जन्मजात कवच-कुण्डलों के हरण की योजना बनाई जिनके रहते कर्ण अवध्य और अजेय था। इंद्र का मनोभाव जान सूर्यदेव ने अपने पुत्र कर्ण को समझाया कि यदि अपने प्राणों की रक्षा करनी हो तो किसी भी सूरत में अमृतमय कवच-कुंडल का दान न दे।
कर्ण अपने दानव्रत पर अडिग था और कीर्तिकांक्षी था, अतः उसने सूर्य से कहा कि ‘वृणोमि कीर्ति लोके हि जीवितेनापि भानुमन्। कीर्तिमानश्नुते स्वर्गे हीनकीर्तिस्तु नश्यति।।’ अर्थात हे सूर्यदेव! मैं जीवन देकर भी जगत में कीर्ति का ही वरण करूंगा। इसलिए कि कीर्तिमात व्यक्ति ही स्वर्गिक सुख भोगता है। जिसकी कीर्ति नष्ट हो जाती है, वह स्वयं भी नष्ट ही है।
सूर्य के बहुत समझाने पर भी जब कर्ण न माना तब सूर्य ने उसे दान के बदले इंद्र की शत्रुघातक अमोघ शक्ति मांगने को कहा और अंतर्धान हो गए। अगले दिन इंद्र ने आकर कर्ण से कवच-कुण्डलों का दान मांगा। कर्ण ने आनाकानी की मगर जब इंद्र कवच-कुण्डल पर अड़े रहे तो कर्ण शक्ति के बदले दान पर राज़ी हो गया। उसने तलवार से अपने जन्म के साथ उत्पन्न कवच-कुण्डल काटकर इंद्र को दे दिए।
महाभारतकार लिखते हैं ऐसा करते समय उस पर आकाश से पुष्पवर्षा हुई। काटते समय अत्यंत पीड़ा के बावजूद कर्ण के मुख पर तनिक विकार न आया। इंद्र के आशीर्वाद से कवच निकलने के बाद भी उसका शरीर वीभत्स न हुआ। इंद्र ने उसे केवल एक बार प्रयोग में आने वाली अमोघ शक्ति दी, जो युद्ध में घटोत्कच को मारने के काम आई।
कर्ण को इस दान से यश तो मिला पर फल नहीं क्योंकि उसका दान निष्काम नहीं, विनिमय था। दान वही श्रेष्ठ, धर्मसम्मत व फलदायी है जो कामना रहित होकर किया जाए।
दान ही सच्चा धर्म है...
धर्मग्रंथों में धन की तीन ही गति कही गई है– पहली दान, दूसरी भोग और तीसरी नाश। इनमें दान सर्वोत्तम है।
अन्नदान, जलदान, भूमिदान, धनदान, गोदान, क्षमादान और जीवनदान की कथाओं से धर्मग्रंथ भरे हुए हैं। वर्तमान में रक्तदान, नेत्रदान और देहदान दाताओं के यश का वर्धन कर रहे हैं।
अठारह पर्वों के महाकाव्य ‘महाभारत’ का 13वां पर्व अनुशासन पर्व है। जो महायुद्ध के बाद शांतिपर्व के ठीक बाद में है। अनुशासन पर्व के 168 में से 166 अध्याय ‘दान धर्म पर्व’ के ही रूप में संकलित हैं। यह संकेत है कि जीवन का सच्चा अनुशासन दान में ही है। दान ही मनुष्य का सच्चा धर्म अर्थात कर्तव्य है जो पर्व अर्थात मिलन या उत्सव की सृष्टि कर धरती को सबके लिए ‘स्वर्ग’ बनाता है। अनुशासन पर्व के अनुसार–
मनुष्य धर्म, अर्थ, भय, कामना और दया, इन पांच हेतुओं से दान देता है। इनमें ईर्ष्या या कामना रहित होकर दिया गया दान ही धर्ममूलक और सर्वश्रेष्ठ है।
‘इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्।’ अर्थात–
दान करने वाला मनुष्य इस लोक में कीर्ति और परलोक में उत्तम सुख पाता है।
महाभारत के अनुसार दानों में सर्वश्रेष्ठ अन्नदान है।
'अन्नेन सदृशं दानं न भूतं न भविष्यति।
तस्मादन्नं विशेषेण दातुमिच्छन्ति मानवा:॥' अर्थात–
अन्न के समान न कोई दान था न होगा। इसलिए मनुष्य प्रमुखतः अन्न का ही दान करते हैं। कारण...
'अन्नेन धार्यते सर्वे विश्वं जगदिदं प्रभो।' अर्थात–
सम्पूर्ण जगत को अन्न ने ही धारण किया है। अन्न से ही सभी सबके प्राण टिके रहते हैं। अतः इससे बढ़कर कोई दान नहीं है।
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