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शख़्सियत:एक करोड़ सैलरी का ऑफर ठुकराया, तीन स्टार्टअप हुए फेल, आज हैं शार्क टैंक इंडिया की जज आंत्रप्रेन्योर विनीता सिंह

तेजस्वी मेहता2 महीने पहले
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  • 38 वर्षीय आंत्रप्रेन्योर विनीता सिंह का नाम देश की सशक्त महिलाओं में शुमार है। शुगर कॉस्मेटिक्स की इस सीईओ की सफलता दरअसल विफलताओं से मिले सबक़ का परिणाम है। इसीलिए ‘शार्क टैंक’ नामक टीवी कार्यक्रम के ज़रिए व्यापक रूप से पहचानी जाने वाली विनीता कहती हैं कि...जीवन में जितनी जल्दी हो सके, हार जाओ।

2021 में सशक्त महिला व्यवसायी के रूप में फ़ोर्ब्स के कवर पर आने वालीं, आत्मविश्वास से लबरेज़ विनीता के मुंह से यह सुनना सचमुच अविश्वसनीय लगता है कि किशोरावस्था में वे आम भारतीय लड़कियों की तरह ही अपनी त्वचा को लेकर नाख़ुश थीं। विनीता की त्वचा का रंग हमेशा से ही बहुत गहरा था। उन्होंने अपने रंग, त्वचा और मेकअप को लेकर जो महसूस किया, उसी के चलते वे भारत की बहुत-सी लड़कियों के मन को जान पाईं। इसलिए ‘शुगर कॉस्मेटिक्स’ की शुरुआत करते वक़्त उन्होंने इस बात का विशेष ध्यान रखा। मेकअप के विज्ञापनों में अभिनेत्रियों को प्रतीक के रूप में पेश करना भी उन्हें नागवार लगता है।

2019 में स्टार्टअप ऑफ़ द ईयर का पुरस्कार जीतने वाली विनीता बताती हैं कि एक समय था जब स्टार्टअप को लेकर वे हताश भी हुईं, आत्मसंदेह भी हुआ लेकिन खेलों में उनकी सक्रियता ने जीवन को दिशा दी। विनीता दक्षिण अफ्रीका में एक मैराथन दौड़ने वाली थीं। वे बताती हैं कि मैराथन में एक शब्द होता है ‘डीएनएफ़’ यानी ‘डिड नॉट फ़िनिश’। यदि किसी धावक को डीएनएफ़ मिल जाता है तो पदक नहीं मिलता है। मैराथन में विनीता को 12 घंटे में 90 किमी दौड़ना था, यदि वे लक्ष्य को उस दिन पूरा नहीं कर पातीं तो ट्रैक पर तो डीएनएफ़ मिलता ही, शायद जीवन में भी मिलता। उन्होंने 11 घंटे 56 मिनट 36 सेकंड में उसे पूरा किया। तब महसूस हुआ कि जब यहां हार नहीं मानी, तो जीवन में शिकस्त का तो सवाल ही नहीं उठता।

तेजस्वी मेहता के साथ विशेष मुलाक़ात में उन्होंने अपनी ज़िंदगी के सबक़ और उनके पीछे की प्रेरक कहानियां सुनाईं...

मेरा जन्म गुजरात में हुआ था। पापा एम्स में प्रोफेसर रहे हैं और मम्मी के ताल्लुक़ात भी मेडिकल रिसर्च से रहे हैं। गणित और भौतिकी मेरे पसंदीदा विषय हुआ करते थे। प्रतियोगी परीक्षा में अखिल भारतीय स्तर पर 378वीं रैंक आई और मुझे आईआईटी मद्रास में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में प्रवेश मिल गया था। वहां एक ही साल में तय कर चुकी थी कि आगे चलकर इंजीनियर तो नहीं ही बनना है। आईआईएम अहमदाबाद से एमबीए करते हुए स्ट्रेटजी कंसल्टिंग, इन्वेस्टमेंट बैंकिंग की ट्रेनिंग ली। 2006-07 में इंटर्नशिप के लिए न्यूयॉर्क गई। वहां महिलाओं को देखकर बहुत प्रभावित होती थी क्योंकि वे किसी पर निर्भर नहीं थीं।

साकार ही न हो सका पहला विचार

भारत लौटी तो लौंजरी ब्रांडिंग का विचार मस्तिष्क में था, क्योंकि उस समय इस क्षेत्र में कोई भी बड़ा भारतीय ब्रांड नहीं था जिसका नाम लेकर महिलाएं अंतर्वस्त्र ख़रीदती हों। उनको पता तक नहीं होता था कि उनके लिए क्या आरामदायक है और शरीर की संरचना के अनुसार क्या पहनना होगा। इसलिए लगता था कि इसमें कुछ अच्छा कर लेंगे।

आईआईएम के दो दोस्तों के साथ मैं कई बार इस विचार को प्रतियोगिताओं में लेकर गई। हम जीते भी। तब हमें लगा कि यह ज़रूर सफल होगा। हमारे लिए आंत्रप्रेन्योरशिप का रास्ता खुल चुका है। इसी बीच मैंने सालाना एक करोड़ रुपये पैकेज वाली एक नौकरी का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। लेकिन लौंजरी स्टार्टअप के लिए जब हमें फंड चाहिए था, उस वक़्त इन्वेस्टर्स का इस आइडिया पर विशेष प्रतिसाद नहीं मिला। स्पष्ट कहूं तो उन्होंने हमें भगा दिया। कुछ समय पहले ही बढ़िया नौकरी को ना कहा था तो समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें, ख़ाली हाथ घर तो लौट नहीं सकते थे। ऐसा करना मतलब कई सारे सवालों का सामना। मुझे जवाब देना होगा कि कुछ करने को ख़ास नहीं था तो फिर मैंने ऐसी मूर्खता क्यों की? मैं इन सवालों से बचना चाहती थी क्योंकि मैं जानती थी कि मेरा फ़ैसला सही था। उस वक्त मुझे बस यही लग रहा था कि कुछ न करने से तो कुछ करना बेहतर है।

दूसरी बार भी मायूसी और नाख़ुशी

लौंजरी स्टार्टअप का विचार जब साकार नहीं हो पाया तो रिक्रूटमेंट सर्विस कंपनी में डायरेक्टर के रूप में नई शुरुआत की। कंपनी में मुझे क्रय-विक्रय देखने के साथ ही ग्राहक लाने होते थे। जब ग्राहकों के पास जाती थी तो वे कम उम्र देखकर मुझ पर विश्वास नहीं करते थे। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि उम्रदराज़ दिखने के लिए बालों में थोड़ा पाउडर भी डाला, कई तरकीबें आज़माईं। पहले महीने तो यह हाल था कि 10,000 रुपये भी नहीं निकाल पाए थे। हालांकि कुछ महीनों के बाद ठीक-ठाक राशि प्राप्त होने लगी थी। काम में रचनात्मकता व नयेपन के लिए कोई जगह नहीं थी इसलिए ज़्यादा दिन इसे किया नहीं और 2012 में को-फाउंडर को कंपनी के सारे शेयर बेच दिए।

तीसरा स्टार्टअप बना शुगर का आधार

2011 में कौशिक सिंह से शादी हुई, जो कि आईआईएम में मेरे सहपाठी थे। 2012 में हमने तय किया कि एक ई-कॉमर्स कंपनी के रूप में कुछ शुरू करते हैं। इसी को देखते हुए हम इंस्टाग्राम पर सौंदर्य व स्व-देखभाल से जुड़े शोध करवाने लगे। हमने एक ऐसा एल्गोरिदम तैयार किया था जिससे कि हम लोगों से प्रतिक्रिया लेकर उन्हें श्रेष्ठ मेकअप उत्पाद सुझाते थे। इस दौरान मेरा ध्यान इस पर गया कि मेकअप के संबंध में युवतियों की पसंद व नज़रिया मम्मियों से अलग था। सौंदर्य प्रसाधनों में भी वे ऐसा कुछ चाह रही थीं जो लंबे समय तक टिका रहे।

दूसरी बात यह भी थी कि भारत में लड़कियां इस तरह के जिन सौंदर्य प्रसाधनों का उपयोग करती थीं वे विदेशी कंपनियों के होते थे। हमारे देश में लड़कियों की त्वचा का सामान्य रंग थोड़ा गहरा ही है। ऐसे में वे क्या करें, विदेशी उत्पाद उनकी त्वचा के रंग के अनुसार मिलते नहीं और देशी बन ही नहीं रहे थे। इन्हीं दिनों मुझे लगा कि भारतीय मेकअप इंडस्ट्री में यह बड़ी कमी है। इस प्रकार 2015 में शुगर कॉस्मेटिक्स का जन्म हुआ।

एक तीसरी बात आज से 10 साल पहले यह भी मन में थी कि भारत में कई लड़कियों को नहीं पता होता था कि किस सौंदर्य प्रसाधन का इस्तेमाल कैसे किया जाता है। मात्रा कितनी लेनी होती है व परिणाम कैसा होगा। इसी विचार को ध्यान में रखते हुए हमने शुगर के आरम्भिक दिनों में ही इस तरह की सामग्री के प्रस्तुतीकरण पर भी काम करना शुरू किया। हम दफ़्तर में ही किसी भी कर्मचारी पर उत्पाद का उपयोग करते और छोटे-छोटे वीडियोज़ के रूप में शुगर के विभिन्न सोशल मीडिया पेज पर मेकअप के उपयोग का प्रशिक्षण देने लगे। इससे हमारे ग्राहकों में भी बढ़ोतरी हुई। धीरे-धीरे शुगर को सफलता मिलने लगी।

शुरुआत में थीं तीन चुनौतियां

ज़ाहिर-सी बात है शुगर की शुरुआत हुई तो सबकुछ आसान नहीं था। मेकअप के स्टार्टअप के लिए पूंजी मिलना आसान नहीं था। महिलाओं को पूंजी मिलने में वैसे ही दिक़्क़त आती है। निवेशक एकदम विश्वास नहीं दिखा पाते हैं। शुगर की फंडिंग के लिए निवेशकों का यह भी कहना था कि ये कंज़्यूमर ब्रांड वाला व्यापार है, इस पर जोखिम लेना थोड़ा मुश्किल होगा।

दूसरी चुनौती हमारे सामने यह थी कि उत्पाद निर्माताओं को किस प्रकार समझाएं क्योंकि वे अक्सर आइडिया को पूरा जानने से पहले ही मना कर देते थे।

तीसरी चुनौती थी कम समय में ऐसी टीम खड़ी कर देना जो हमारी अपेक्षाओं पर खरी उतरे। अलग-अलग क्षेत्रों के श्रेष्ठ लोगों को चुनना और फिर उन्हें साथ लेकर चलना, कठिन काम है।

टिश्यू पेपर पर लिखी वह ज़रूरी बात...

शुगर का जब विचार आया था, उसके कुछ दिनों बाद कौशिक और मैं फ्लाइट में जा रहे थे, तभी कामों को बांटने की बात निकली। उस समय मैंने एक टिश्यू पेपर पर दोनों की ज़िम्मेदारियां लिख डाली थीं। जो ज़िम्मेदारियां हमने लिखी थीं, आज भी हम उन पर अचल हैं और आगे भी रहेंगे। मैं रिटेल, प्रॉडक्ट और फाइनेंस देखती हूं और कौशिक ई-कॉमर्स, तकनीक व मार्केटिंग संभालते हैं। ज़ाहिर-सी बात है, साथ काम कर रहे हैं तो वैचारिक मतभेद भी होते हैं, लेकिन हमारा एक नियम है कि जिसका जो विभाग है, उससे जुड़ा अंतिम निर्णय वही लेगा।

20 साल पीछे की विनीता से कहूंगी...

20 साल पीछे की विनीता को कोई सुझाव देने का मौक़ा मिले तो कहूंगी कि जल्दी से फेल हो जाओ, क्योंकि तुम जितना विफल होती रहोगी, उतना ज़्यादा सीख पाओगी। मैं बचपन से वे चीज़ें नहीं करती थी जिनके सफल होने पर मुझे संशय होता था। छोटे-छोटे सपने देखती थी। साथ ही यह भी कहना चाहूंगी कि रंगमंच, खेलकूद, चुनाव आदि में ख़ूब सहभागिता दिखाओ, क्योंकि भविष्य में ये सब भी बहुत काम आने वाला है।

स्टार्टअप की राह चुनने वालों से...

कुछ भी करने के लिए एक आइडिया को पकड़कर बैठने से कुछ नहीं होता है। कम से कम उसे शुरू तो करो। कोशिश करो कि ख़ुद के बलबूते पर ही कुछ शुरू करो ताकि उससे जुड़ी सभी चीज़ों का केंद्र आप रहोगे और छोटी से बड़ी समस्या को भी आप आसानी से समझ सकोगे। यदि आपको कुछ बड़ा करना है तो सबसे पहले इस बात को समझो कि एक दिन में बड़ी कंपनी खड़ी नहीं होती है। इसलिए आपको काम की निरंतरता नहीं तोड़नी है। जी-जान से मेहनत करोगे तो 15-20 साल में तो कंपनी बड़ी हो ही जाएगी। अपने काम में देखो कि कहां चीज़ें रुक रही हैं, उन्हें नए विचारों से बदलो और आगे बढ़ो। अधीर होकर काम को बीच में छोड़ देना, अपना 100 प्रतिशत नहीं देना, ये सब मत करो।

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