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जब विषाणु हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं तो हमारा प्रतिरोधी-तंत्र उनसे संघर्ष करता है। यह लड़ाई लड़ने में हम उसकी मदद वैसे ही करते हैं, जैसे हनुमान जी को उनके बल की याद दिलाई गई थी। इम्यून सिस्टम को उसकी ताक़त का अहसास कराने के हमारे इसी जतन का नाम वैक्सीनेशन है!
जब मनुष्य ने कम्प्यूटर बनाया तो अपने शरीर में निहित उन प्रविधियों की नक़ल ही की, जिनमें जैविक सूचनाएं कोडिफ़ाइड रहती हैं। हम देखते हैं कम्प्यूटर भली प्रकार काम कर रहा है। फिर हम उसमें एक पेन ड्राइव इनसर्ट करते हैं और सहसा कम्प्यूटर में मौजूद एंटीवायरस चौकस हो उठता है। ख़बरदार, एक फ़ॉरेन एंटीटी नमूदार हुई है!
अगर पेन ड्राइव में मालवेयर हैं तो वह उसमें निहित डेटा के प्रवेश को अवरुद्ध कर देता है। पहले स्कैन कीजिए- वह कहता है- उसके बाद ही हम डेटा को एक्सेस करेंगे। हमें रज़ामंदी में सिर हिलाने भर की देरी होती है कि एंटीवायरस सक्रिय हो जाता है। वो मालवेयर को हटाकर ही दम लेता है।
कम्प्यूटर में जो एंटी-वायरस है, वही मनुष्य के शरीर में इम्यून सिस्टम है। यह रोगों से हमारी रक्षा करता है।
विषाणुओं की खोज भले 1890 के दशक में हुई हो, किंतु ये अगणित युगों से अस्तित्व में हैं। मनुष्य ने सूक्ष्मदर्शी के नीचे उन्हें अपनी आंख से जब देखा, उसके बहुत पहले से उसे उनके अस्तित्व का अनुमान था।
विषाणु किसी जैविक संरचना के बाहर जीवित नहीं रह सकता था। अपने अस्तित्व के लिए वो भरसक जतन करता था कि किसी तरह आपके ऊतकों में प्रविष्ट हो जाए। यह विरोधाभास ही है कि विषाणु के संक्रमण से हमारी मृत्यु हो सकती है, जबकि विषाणु हमें मारना नहीं चाहता। वह अपने घर को भला क्यूं गंवाना चाहेगा?
वैक्सीनेशन की सैद्धांतिकियों को अंतिम स्वरूप भले उन्नीसवीं सदी में लुई पाश्चर के द्वारा दिया गया हो, किंतु कम ही लोग जानते होंगे कि गंगा के दोआब के यायावर ब्राह्मणों के एक पंथ ने अढ़ाई सौ साल पहले ही टीके की ईजाद कर ली थी! उस समय चेचक बड़ी महामारी थी।
किंतु यह देखने में आता था कि एक बार जिसे चेचक हो जाए और उसके प्राण बच जाएं, तो उसके बाद फिर उसे कभी चेचक नहीं होती। इस पर सोचा गया कि हो न हो, किसी रोग का सामना करने के बाद रोगी के शरीर में ऐसी कोई प्रतिक्रिया होती होगी, जो आगे से उसे इसका सामना करने के लिए तैयार कर देती होगी।
गंगा के दोआब के वो ब्राह्मण यायावर टीके का इस्तेमाल कैसे करते थे? वो किसी चेचक के रोगी से पीप लेते थे और किसी स्वस्थ व्यक्ति की त्वचा को खुरचकर उसमें उसका प्रवेश करा देते थे। ऊपर से पट्टी बांध देते थे। वह व्यक्ति रोग से संक्रमित होकर खाट पकड़ लेता था, किंतु जल्द ही वो इससे उबर जाता और फिर कभी उसे यह रोग नहीं सताता।
इस टीकाकरण के दो बुनियादी सिद्धांत थे- एक, अगर सीमित संख्या में किसी व्यक्ति के शरीर में विषाणु का प्रवेश कराया जाए, तो उसे प्राणघातक रोग नहीं होगा, केवल अल्पकालिक लक्षण ही उभरेंगे। और दो, किंतु इसी प्रक्रिया में शरीर के भीतर मौजूद रोग प्रतिरोधक प्रणाली- जो कि सूचनाओं को प्रोसेस करने वाली बड़ी कुशाग्र व्यवस्था होती है- सक्रिय हो जाती है, और उस वायरस को पहचान लेती है।
आइंदा से वह शरीर को क्षति ना पहुंचाए, यह सुनिश्चित करने के लिए वह अपने भीतर मज़बूत क़िलेबंदी कर लेती है।
मनुष्य के इम्यून सिस्टम और वायरसों के बीच तू डाल-डाल, मैं पात-पात का यह खेल लम्बे समय से चल रहा है। इधर एंटीबायोटिक की शह है तो उधर सुपरबग की मात है।
इधर इम्यून सिस्टम वायरसों के प्रति इम्युनिटी विकसित करता है, उधर वायरस उसमें सेंध लगाने के नए तरीक़े खोज निकालते हैं। यह एक प्रोग्रामिंग की तरह है। जैविक-संसार में सभी जीव-संरचनाओं को इसी तरह किसी भी क़ीमत पर सर्वाइवल के लिए डिज़ाइन किया गया है।
कोरोना वायरस से लड़ाई में भी मनुष्य के पास दो ही प्लान थे। प्लान-ए यानी डिफ़ेंसिव प्लान- जितना सम्भव हो वायरस से बचकर रहो। प्लान-बी- कि अगर हम संक्रमित हो गए, तो अपने इम्यून सिस्टम पर भरोसा रखो। हम अभी बाहर से उसकी मदद करने में सक्षम नहीं हैं।
अक्वायर्ड सिस्टम यानी वैक्सीनेशन अभी अमल में नहीं लाया जा सकता है। लिहाजा इननेट इम्युनिटी पर ही दारोमदार है।
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