पुरा गाथा:कौन था एकलव्य, कहां से आया था और अंगूठा दान करने के बाद उसका क्या हुआ!

डाॅ. विवेक चौरसिया10 दिन पहले
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  • महान धनुर्धर एकलव्य के लिए स्वयं श्रीकृष्ण ने कहा था कि - यदि उसका अंगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग, सब मिलकर भी युद्ध में उसे परास्त नहीं कर पाते। अब प्रश्न यह कि - कौन था एकलव्य और बाद में उसका क्या हुआ? नूतन जानकारियों से समृद्ध इस शोधपरक आलेख में सारे उत्तर समाहित हैं।

भारतीय समाज और संस्कृति में महाभारत वर्णित एकलव्य अनन्य गुरुभक्ति का पर्याय है। वह एकाग्रता, अथक श्रम, निरंतरता और लक्ष्य प्राप्ति के लिए संकल्प का कालजयी प्रतीक भी है। उसे आधुनिक धनुर्विद्या का जनक माना जाता है, जिसने बगै़र अंगूठे के ही बाण चलाने की नव-धनुर्विद्या प्रारम्भ कर क्रांति कर दी थी। इन अनेक कारणों से एकलव्य को प्रसिद्धि मिली और निषादों, भीलों और आदिवासी समाज ने उसे अपना आदर्श पुरुष मान लिया। इस धरती पर उसकी सदेह उपस्थिति के सदियों बाद आज भी वनवासी उसे पूजते हैं और उसके सम्मान में अनेक मंदिर तक बने हुए हैं। इस तरह एकलव्य एक किंवदंती की भांति विद्यार्थियों और वनवासियों के मन में विराजमान है।

जनश्रुतियों और लोकविश्वासों के बीच महाभारत और पुराण एकलव्य की जो जीवन कथा सुनाते हैं, वह चौंकाने वाली है। इसे देखकर लगता है कि एकलव्य महाभारत का मानो सर्वाधिक विरोधाभासी पात्र है। वह नायक भी है और प्रतिनायक भी है। एकलव्य के जन्म और मृत्यु दोनों ही अस्पष्ट हैं। पुराणों के वर्णन विरोधाभास भरे हैं और महाभारत भी उसकी अंत-कथा पर प्रायः मौन है। ऐसे में एकलव्य चरित्र सम्बंधी जिज्ञासा और अधिक हो उठती है।

अंगूठा देकर आगे बढ़ गया

महाभारत में एकलव्य एक निषाद राजकुमार है, जो क्रोधावशगणों से उत्पन्न अवतारों में से एक था। उसके और गुरु द्रोण के बारे में विश्वविख्यात कथा का आधार इस महाकाव्य का आदिपर्व है। इसमें उसे निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र बताया गया है जो आचार्य द्रोण की ख्याति सुन उनके पास धनुर्विद्या सीखने आया था। जब उसे शिष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया तो वह वन में गया और मिट्टी से द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाकर, उसी में गुरु की परम उच्च भावना रख नियमपूर्वक धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा।

कथा कहती है कि एक दिन कौरव-पांडव राजकुमार वन में शिकार के लिए गए। तब एक कुत्ता उनके पीछे चल रहा था जो कि भटककर वहां पहुंच गया जहां एकलव्य द्रोण प्रतिमा के समक्ष अभ्यास कर रहा था। एकलव्य को देख जब कुत्ता भौंकने लगा तो अपने अभ्यास में व्यवधान जान एकलव्य ने अपने अस्त्रलाघव का परिचय देते हुए कुत्ते के मुंह में एक साथ सात बाण मारे। जब बाण सहित वह कुत्ता कौरव-पांडवों के पास पहुंचा तो सारे राजकुमार आश्चर्यचकित रह गए। सब राजकुमार जब एकलव्य के पास पहुंचे तो उसने अपने आप को द्रोण का शिष्य बताया। यह बात स्वयं को गुरु द्रोण का सर्वश्रेष्ठ शिष्य मानने वाले अर्जुन को बहुत खली। उसने विनम्रतापूर्वक इसका उलाहना एकांत में द्रोण को दिया। तब द्रोण अर्जुन को साथ लेकर उसके पास आए। गुरु को साक्षात सम्मुख देख एकलव्य उनके चरणों में झुक गया। तब अर्जुन के हित के लिए वचनबद्ध द्रोण ने गुरुदक्षिणा में उससे दाहिने हाथ का अंगूठा मांगा और उसने प्रसन्नमुख, उदारचित्त, बगै़र विचारे अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को काटकर द्रोण को अर्पित कर दिया।

इससे द्रोण भी अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे संकेत मात्र से बताया कि किस प्रकार तर्जनी और मध्यमा के संयोग से बाण पकड़कर धनुष की प्रत्यंचा खींची जा सकती है। इस तरह द्रोण ने एकलव्य को ‘अगले स्तर' की धनुर्विद्या उत्तराधिकार के रूप में सौंपी।

निषाद या यदु- कौन?

हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के 34वें अध्याय के अनुसार, श्रीकृष्ण के दादा शूरसेन के भोजराजकुमारी से दस पुत्र और पांच पुत्रियां थे। इनमें श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव सबसे बड़े थे। वसुदेव के दूसरे भाई देवभाग के पुत्र उद्धव थे और तीसरे भाई देवश्रवा का पुत्र शत्रुघ्न था। इसी शत्रुघ्न काे निषादों ने पालकर बड़ा किया था, इसलिए वह निषादवंशी एकलव्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस तथ्य के आलोक में एकलव्य जन्म से श्रीकृष्ण का चचेरा भाई था। पौराणिक संदर्भों के अनुसार बचपन में ही क्रूरकर्मा होने से पिता ने उसे त्याग दिया था और निषादराज हिरण्यधनु को सौंपा था। हिरण्यधनु उस समय प्रयाग के निकटवर्ती निषादों की राजधानी शृंगवेरपुर का राजा था। यह एक शक्तिशाली राज्य था और एकलव्य स्पष्टतः इसका राजकुमार था। तब निषाद समर्थ और धनवान थे।

एक विचार कहता है कि चूंकि द्रोण एकलव्य के स्वभाव, अतीत और भविष्य को समझते थे, इसीलिए उन्होंने उसका अंगूठा गुरुदक्षिणा में मांगा था। इसके दो उद्देश्य थे- पहला एकलव्य की शक्ति के दुरुपयोग को नियंत्रित करना और दूसरा उसकी प्रतिभा का उपयोग बग़ैर अंगूठे वाली आधुनिक धनुर्विद्या के विकास में करना।

शक्तिशाली नौसेना भी थी

महाभारतकाल में निषादों का राज्य शृंगवेरपुर अत्यधिक शक्तिशाली था। हिरण्यधनु की रानी का नाम सुलेखा था, जो लोक में एकलव्य की माता के नाम से जानी गई। एकलव्य ने अल्पवय में धनुर्विद्या में दक्षता प्राप्त कर ली थी तथा अधिक दक्ष होने की लगन में द्रोण के पास आया था। द्रोण को गुरुदक्षिणा देकर वह अपने राज्य लौट गया और पिता हिरण्यधनु के देहांत के बाद राजा बना। एक निषादकन्या सुणीता से उसका विवाह हुआ था। अपने राज्यकाल में उसने निषाद-भीलों की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित कर ली तथा अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया।

जब भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया तो कंस के ससुर मगध नरेश जरासंध ने अनेक राजाओं के साथ मथुरा पर आक्रमण किया था। इसमें एकलव्य भी अपनी सेना के साथ जरासंध की ओर से लड़ा था। इससे प्रमाणित है कि एकलव्य अपने उस मूल राज्य के प्रति घृणा से भरा हुआ था, जिसने उसे त्याग दिया था।

द्वारका पर किया आक्रमण

हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व की कथा है कि बंग, पुंड्र तथा किरात देशों का राजा पौंड्रक श्रीकृष्ण से घोर प्रतिस्पर्धा रखता था। उसने स्वयं को वासुदेव घोषित कर दिया था। एक बार जब कृष्ण बद्रिकाश्रम गए तो पौंड्रक ने द्वारका पर आक्रमण किया। तब एकलव्य उसका परम सहयोगी था। युद्ध में एकलव्य ने युद्ध करने आए वसुदेव, उग्रसेन, उद्धव, अक्रूर, कृतवर्मा, सारण आदि यादव वीरों को घायल कर असंख्य यादवों का संहार किया था। तब बलराम ने एकलव्य से लोहा लिया और दोनों के बीच भयानक युद्ध हुआ। इसी बीच कृष्ण द्वारका पहुंचे और पौंड्रक का वध कर दिया। इधर बलराम ने एकलव्य पर विजय पाई। तब एकलव्य युद्ध से पलायन कर समुद्र में कूद पड़ा और पांच योजन तैरता हुआ एक द्वीप पर पहुंच गया।

राजसूय की राह में रोड़ा

इंद्रप्रस्थ की स्थापना के बाद जब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के समक्ष राजसूय यज्ञ की कामना व्यक्त की तब कृष्ण ने कहा था कि शिशुपाल, रुक्मी, द्रुम, श्वेत, शैव्य, शकुनि और एकलव्य सहित जरासंध को जीते बगै़र राजसूय यज्ञ कैसे कर सकते हैं? इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि तत्कालीन राजाओं में एकलव्य प्रमुख था।

जरासंध के भीम के हाथों वध के बाद जब चारों पांडव भाई दिग्विजय पर निकले तब भीम पूर्व दिशा के राजाओं को युधिष्ठिर के अधीन करने के अभियान पर गए थे। सम्भव है उस समय एकलव्य द्वारका की लड़ाई में बलराम से पराजित होकर समुद्री द्वीप पर रह रहा था। इसलिए भीम ने निषादों के राज्य पर अधिकार कर लिया। क्योंकि सभापर्व के इस अध्याय में एकलव्य का नाम नहीं है बल्कि ‘निषादाधिपति’ लिखा है। उसकी अनुपस्थिति में ही भीम ने निषादों को युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य कर लिया था।

वहीं युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में एकलव्य भी उपस्थित था। इसका प्रमाण है कि यज्ञ में जब श्रीकृष्ण की अग्रपूजा का शिशुपाल ने विरोध किया, तब उसने सभा में उपस्थित महत्वपूर्ण राजाओं में एकलव्य का नाम भी गिनाया था।

महायुद्ध से पूर्व हुआ अंत

महाभारत श्रीकृष्ण के हाथों एकलव्य के वध का संकेत भर करती है। उद्योग पर्व से इसकी पुष्टि होती है कि जब महायुद्ध के लिए युधिष्ठिर ने एकलव्य को युद्ध में भाग लेने का बुलावा भेजा था। इसके बमुश्किल एक-डेढ़ माह के बीच श्रीकृष्ण के हाथों उसके वध की सूचना कौरव सभा में संजय के वचन से प्राप्त होती है। इसी उद्योग पर्व में संजय कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाते हुए कहता है- ‘पांडवों के संरक्षक श्रीकृष्ण हैं। ये भगवान श्रीकृष्ण उस निषादराज एकलव्य को सदा युद्ध के लिए ललकारा करते थे, जो दूसरों के लिए अजेय था। वह एकलव्य कृष्ण के हाथों प्राणशून्य होकर रणशय्या पर उसी प्रकार सो रहा है, जिस प्रकार जम्भ नामक दैत्य स्वयं ही वेगपूर्वक पर्वत पर आघात करके महानिद्रा में डूब गया था।'

महायुद्ध से पहले श्रीकृष्ण ने एकलव्य को मारकर पांडवों के एक बड़े कांटे का निदान कर दिया था। जब कर्ण ने अर्जुन को मारने के लिए इंद्र से ली शक्ति घटोत्कच पर चला दी तब पांडव दुःखी थे, मगर कृष्ण प्रसन्न थे। अर्जुन द्वारा इसका कारण पूछने पर कृष्ण ने कहा- ‘हे पार्थ! यदि एकलव्य का अंगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग सब मिलकर भी उसे परास्त नहीं कर पाते। (इसलिए जैसे कर्ण की शक्ति का घटोत्कच पर उपयोग कराकर मैंने कर्ण से तुम्हारी रक्षा की) उसी प्रकार तुम्हारे हित के लिए इस युद्ध के मुहाने पर मैंने एकलव्य को भी मार डाला था।'

हरियाणा के गुरुग्राम में एकलव्य का मंदिर है। मान्यता है कि इसी स्थान पर एकलव्य ने अपना अंगूठा द्रोणाचार्य को अर्पित किया था। इस क्षेत्र की भूमि द्रोण को दान की गई थी और गुरु का स्थान होने से यह गुरुग्राम कहलाया। अपने विवादित और रहस्यमय जीवन के बीच गुरु के प्रति समर्पण के एकमात्र आचरण ने एकलव्य को अमर कर दिया है।

(लेखक पौराणिक साहित्य के अध्येता हैं। परिवार में जीवन मूल्य और नई पीढ़ी में भारतीय संस्कृति के प्रति आग्रही हैं। दैनिक भास्कर में 20 वर्षों की सेवा के बाद अब स्वतंत्र लेखन।)

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