जीवन-शिल्प:सर्दियों का फैशन है सबसे पुराना, सबसे पहले इंसान ने ठंड से बचने के लिए पशुचर्म पहना था

पुष्पेश पंत2 महीने पहले
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  • संस्कृति और सभ्यता के विकास के सोपानों में भाषा-साहित्य के गढ़न के बाद जिस आकर्षण की बारी आती है, वह है जीवनशैली का विकास। अपनी दुनिया को सजाने, ख़ुद को धरा के मौसम के मुताबिक़ समायोजित करने और उसमें भी निरंतर निखार लाने का प्रयास मानव सतत करता रहा है।

जब भी पहनावे की बात होती है तो हमें सबसे पहले या तो ढाके की मलमल जैसे सूती कपड़े की याद आती है या फिर उस रेशम की जो हज़ारों साल से श्रेष्ठी वर्ग की पसंद रहा है। ऊन की याद हमें बहुत बाद में आती है। जबकि हक़ीक़त यह है कि हमारे प्रागैतिहसिक पुरखे सबसे पहले जाड़े से अपने शरीर को बचाने के लिए शिकार में मारे जानवरों की चमड़ी ही पहनते थे। बाद में जानवरों के शरीर से प्राप्त होने वाले ऊन के रेशों से ही तरह-तरह का ऊनी धागा बनाया जाने लगा।

अब भी जैसे ही धूप पीली पड़ने लगती है और उसकी गर्मी गुनगुनी होने लगती है, जाड़े की पदचाप सुनाई देने लग जाती है। सहेजकर रखे ऊनी कपड़ों को संदूक़ों-अलमारियों से बाहर निकालकर धूप दिखाई जाने लगती है। कपूर की गोलियों की गंध याद दिलाती है कि बहुत जल्द ठंड हड्डियां कंपाने लगेगी।

बेशक़ीमती, बेहतरीन ऊन

संसार के श्रेष्ठतम और कोमल ऊनी कपड़े में कैशमियर की गिनती होती है जो कश्मीर शब्द का ही बिगड़ा रूप है। इससे बुने स्वेटर, मफ़लर या सूट के कपड़े ऑस्ट्रेलिया के मेरिनो ऊन को भी पछाड़ देते हैं। कश्मीर का ही पश्मीना भी मशहूर है जिसे ख़ास भेड़ों के सबसे नरम रोओं से हासिल किया जाता है।

महीन पश्मीना बहुत हल्का होता है और बेहद गरम। इसीलिए इसे असाधारण समझा जाता है। इससे भी नायाब ऊनी परिधान शाहतूश होता है। तिब्बत, चीन और लद्दाख वाले इलाक़े में चीरू नामक हिरण की दुर्लभ प्रजाति होती है। उसका ऊन पश्मीने से भी कहीं हल्का और गरम होता है। आज यह प्रजाति लुप्त होने के कगार तक पहुंच चुकी है और इसी कारण शाहतूश भारत में प्रतिबंधित है। चीन में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं और इसकी तस्करी जारी है।

शाहतूश से जुड़ा एक दिलचस्प प्रसंग है।

ब्रिटेन की युवरानी डायना भारत प्रवास पर ग्वालियर के पूर्व नरेश माधवराव सिंधिया की मेहमाननवाज़ी में संगीत की महफ़िल का आनंद खुले में ले रही थीं। तापमान एकाएक गिर गया और वह ठिठुरने लगीं, तब उस्ताद अमजद ख़ान ने अपनी शाहतूश की शॉल से उन्हें रक्षा कवच प्रदान किया। आज स्थिति यह है कि यदि आपके पास विरासत में प्राप्त शाहतूश है तो आप उसका विधिवत पंजीकरण करा लें।

दुर्लभ होने के कारण शाहतूश शॉल की क़ीमत दसियों लाख पहुंचती है और बेहतरीन पश्मीना भी आम आदमी की पहुंच के बाहर रहता है। इसीलिए पश्मीने के साथ रेशम या ज़रा हल्के ऊन का धागा मिलाकर आकर्षक शॉलें बुनी जाती हैं। ऊनी धागे की रंगाई कम जटिल चुनौती पेश नहीं करती इसलिए ऊनी शॉल, दुशालाओं का अलंकरण कढ़ाई से किया जाता है। कढ़ाई के महीन काम से जामावार शॉल को पूरी तरह भर दिया जाता है और ऐसा प्रतीत होता है कि ऊनी कपड़े पर छपाई की गई है।

कुछ शॉलों में सिर्फ़ किनारे पर कढ़ाई होती है और शॉल की ज़मीन पर फूल-पत्तों की शक्ल या अमूर्त डिज़ाइनें दिखती हैं। पुरुषों के लिए बनाई जाने वाली शॉल दुस्से कहलाती हैं। ये कई गज़ लंबी होती हैं और इन्हें ठीक से पहनने की कला कम ही लोग साध पाते हैं।

कुछ लोगों का मानना है कि कश्मीर में ऊनी बुनकरों को सिकंदरशाह ने ईरान और तुर्की से आमंत्रित किया था। परंतु यह बात निर्विवाद है कि भारत में ऊनी शॉल, दुशाले बहुत पहले से काम लाए जाते थे और पुरानी मूर्तियों में बिना सिले वस्त्र के रूप में इनका उपयोग पूरे धड़ को ढकने के लिए राजा-महाराजा और साधु-संत करते थे। साथ ही किसी विद्वान कलाकार को सम्मानित करने के लिए भी शॉल ही भेंट की जाती थी।

पहाड़ी टोपी
पहाड़ी टोपी

पहाड़ की रंगबिरंगी टोपी

उत्तरी भारत की जो हिमालयी पट्टी है उसका विस्तार हिमाचल प्रदेश से लेकर गढ़वाल-कुमाऊं की सरहद तक है। यहां के पहनावे में भले ही कश्मीर जैसी बारीक कढ़ाई का काम नहीं दिखता, पर रंगों का अभाव टोपियों, रूमालों, मफ़लरों में नहीं रहता। खेतों-खलिहानों में काम करने वाले किसान, बाग़वान जिस मोटी बुनाई के पट्टू के कपड़े पहनते हैं उसका स्वाभाविक रंग मटमैला भूरा या स्लेटी होता है। पट्टू को आप देसी टुइड कह सकते हैं। जिस टुइड को अंग्रेज़ लोग अपने साथ भारत लाए उसकी बुनाई कई डिज़ाइनों में होती है।

जाने कहां गईं पंखियां

बीसवीं सदी 1920 के दशक में गांधीजी की प्रेरणा से खादी लोकप्रिय हुई। इससे स्थानीय ऊनी बुनकरी भी प्रभावित हुई। अब तक भारत, नेपाल, तिब्बत सीमांत पर रहने वाले शौका जनजाति के लोग ही अपनी पाली भेड़ों के ऊन की कताई-बुनाई करते थे और अपनी ज़रूरतभर के लिए ऊनी कपड़े का निर्माण करते थे।

भारत की आज़ादी तक शौका भोटियाओं की बनाई पंखियां जिनमें से कुछ खुरदुरे पश्मीने की भी होती थीं, बहुत अच्छी समझी जाती थीं। इन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी बरता जाता था। इसी दौरान महिलाओं की शॉल भी बुनी जाने लगीं जिनका रंग सफ़ेद या स्लेटी होता था, पर बॉर्डर में बुनाई की डिज़ाइन ही डलती थी। तिब्बत से जो ऊन आता था उससे बुने स्वेटर बहुत गर्म होते थे। इसी इलाक़े में कुछ ख़ास क़िस्म के मोटे रोएंदार कंबल भी बुने जाते थे जिन्हें थुल्मा और चुटका कहते थे।

1950 के दशक में चीन द्वारा तिब्बत में सैनिक हस्तक्षेप के बाद चीन के साथ भारत का व्यापार बाधित हो गया और यह कुटीर उद्योग नष्टप्राय हो गया। इन ऊनी कपड़ों को नया जीवन देने के लिए सरकार ने बहुत प्रयास किए, लुधियाना की मिलों का ऊन जनजातीय गांवों को सुलभ कराया, परंतु अब तक नई पीढ़ी की पसंद भी बदलने लगी थी। महिलाएं शॉल की जगह स्टोल या पौंचो पहनना पसंद करने लगीं जो आधुनिक मिज़ाज के जींस-टॉप आदि से मेल खाता था।

जाड़ा चाहे कितना भी कड़क क्यों ना हो, अंदर पहने जाने वाले इनर्स और थर्मल ने ऊनी कपड़े के उत्पादन को निश्चय ही प्रभावित किया है।

फैशन में जवां है ऊन

हमारी समझ में ऊनी कपड़ों के फैशन का ज्वार एक बार फिर उभरने लगा है। जो बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हैं वे अलग-अलग रंगों के ब्लेज़र और स्लेटी वर्सट्रड की पैंट या स्कर्ट आदि पहनते हैं। खेल के मैदान में भी ब्लेज़र्स और फ्लेनल्स का राज जारी है। सेना और पुलिस के अधिकारी भी जाड़ों की वर्दी में इन्हीं कपड़ों का चुनाव करते हैं। हाल के वर्षों में नौजवान पीढ़ी कृत्रिम धागों से बने कपड़ों से विमुख होने लगी है। जहां तक सम्भव हो वे ऊन के लंबे मफ़लरों, दस्तानों और मोज़ों का प्रयोग करते हैं। ऊनी कपड़ों की कुछ डिज़ाइनें ऐसी हैं जिन्होंने अपनी अंतरराष्ट्रीय पहचान बना ली है। इनमें बड़े-बड़े रंगीन चौख़ाने वाली टाटान सबसे पहले याद आती है। स्कॉटलैंड के मशकबीन बजाने वाले और गोल्फ़ खलने वाले कुलीन जो स्कर्टनुमा किल्ट पहनते हैं उसमें यही डिज़ाइन रहती है।

कुछ वर्ष पहले तक जाड़े के मौसम में एक और कपड़े की बहुत पूछ होती थी जिसे कॉर्ट्सवूल नाम दिया गया था। इसमें एक धागा सूत का और एक ऊन का रहता था। देश के जिन हिस्सों में असह्य ठंड नहीं पड़ती वहां के लिए इसे बहुत माकूल समझा जाता था। यहां शायद यह जोड़ने की ज़रूरत भी है कि कड़ाके की ठंड सिर्फ़ हिमालयी-पहाड़ी इलाक़े में ही नहीं पड़ती, तपते रेगिस्तान में भी रात ढलने के बाद तापमान शून्य के नीचे लुढ़कने को आकुल होने लगता है। रेगिस्तानों में भी भेड़ें पाली जाती हैं और इनके रोओं से मोटा ऊन हासिल होता है जो भले ही थोड़ा खुरदुरा हो, बेहद गर्म होता है।

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सारसंक्षेप यह है कि देश के विभिन्न हिस्सों में समाज से हर तबक़े के अनुसार ऊन के कपड़े बुने जाते रहे हैं और उन्हें पहनने के पारम्परिक तरीक़े आज अत्याधुनिक फैशन में अपनी छाप छोड़ने लगे हैं। कैशमियर के मफ़लर, पश्मीना के स्टोल, हिमाचली टोपी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में लोकप्रिय हो रही है। हां, यह ज़रूर सच है कि कुछ दशक पहले तक जो सस्ते, ग़रीबपरवर ऊनी कपड़े जूट और फलालैन (फैनल) नज़र आते थे अब देखने को नहीं मिलते। इसका कारण शायद यह है कि ये सस्ते तो होते थे पर टिकाऊ नहीं।

एक पीढ़ी पहले तक हाथ से बने स्वेटर घर-घर में बुने-पहने जाते थे। पूरी बांह के, आधी बांह के, गोल गले के, वी-नैक, वास्कर्टनुमा कार्डिगन आदि। आज होजयरी के आइटमों ने इन्हें हाशिए से भी बाहर पहुंचा दिया है। चारप्लाई और आठप्लाई का ऊनी धागा तो आज तलाशने पर भी नहीं मिलता। इन स्वेटरों में ऊन की गरमी के साथ स्नेह की जो ऊष्मा भी रची-बसी रहती थी, उसका अभाव कैसे पूरा हो सकता है?

लेखक परिचय-

पुष्पेश पंत

जेएनयू से अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्राध्यापक के रूप में सेवानिवृत्त हुए पुष्पेश पंत की गहरी पकड़ इतिहास, संस्कृति, विदेश नीतियों के साथ भारतीय पाक-कला और वेशभूषा पर भी है। वस्तुत: वे समूची जीवनशैली के अध्येता हैं।

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