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‘मां, घर में कोई पुरानी चादर है क्या?’ मेरी युवा बेटी ने पीछे से आकर मेरे गले में बांहें डालते हुए पूछा। मैंने रोटी बनाते हुए प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा, तो बड़ी मासूमियत से बोली, ‘देखो न मम्मा, दरवाज़े पर एक गाय और उसका बछड़ा बैठे है, उनको बहुत ठंड लग रही है।’ मैंने मुस्करा कर उसकी ओर देखा और कहा, ‘अरे बेटा, गाय क्या चादर ओढ़ कर बैठी रहेगी, कैसी सीए हो तुम। बुद्धू कहीं की।’
परन्तु जैसे उसका ध्यान था ही नहीं। मेरी ओर से सकारात्मक प्रतिसाद न मिलता देख वह चादर ढूढ़ने चली गई। तभी मेरे कानों में अपनी मां के शब्द गूंजे, ‘बेटा, ज्ञान के साथ संवेदना होना आवश्यक है, संवेदनाहीन ज्ञान घातक हो सकता है।’ मेरी सीए बेटी एक मूक पशु के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त कर रही थी। मेरे सामने वे दृश्य घूमने लगे जिनमें संवेदनहीन युवा एक्सीडेंट के समय मदद करने के स्थान पर वीडियो बनाने में लगे रहते हैं या लड़कियों के साथ हाेने वाली दुर्घटनाओं के मूक दर्शक बने रहते हैं। मां ने समझाया था कि जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं के ज़रिए जगाई संवेदनाएं गहरी भावनाओं को स्थान देती हैं।
मैंने तुरन्त निर्णय लिया कि मेरी बेटी की संवेदनाएं समाप्त नहीं होना चाहिए और मैंने हाथ का काम छोड़ा और तुरंत दो चादरें निकालकर बेटी को थमा दीं। मेरी बेटी ख़ुशी से चहकते हुए बाहर जाकर उस बछड़े को चादर ओढ़ाकर ठंड से बचाने की कोशिश में लग गई। उसके पिता बड़े प्रेम से अपनी संवेदनशील बेटी को निहार रहे थे। बछड़ा चादर सहित उठकर घूमने लगा था और मैं बड़ी राहत महसूस कर रही थी कि दो चादरों के बदले मैंने अपनी बेटी की संवेदनाएं सुरक्षित कर ली थीं। ज्ञान का कोष उसने अपनी मेहनत से ख़ूब भर लिया था, अब संस्कारों के ज़रिए संवेदना के ख़ज़ाने भरने थे। यह एक अच्छी शुरुआत थी।
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