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श्री रामकृष्ण परमहंस प्रतिदिन अपने जलपात्र को राख या मिट्टी से मांजकर ख़ूब चमकाते थे। उनका लोटा ख़ूब चमकता था। उनके एक शिष्य को श्री रामकृष्ण का प्रतिदिन इतनी मेहनत से लोटे को चमकाया जाना विचित्र लगता था। निरंतर कई दिनों तक वह उनको लोटे को चमकाता देखता रहा और चिंतित होता रहा। आख़िर एक दिन उससे रहा नहीं गया। वह रामकृष्ण जी से पूछ ही बैठा - 'महाराज, आपका लोटा तो वैसे ही ख़ूब चमकता है। इतना चमकता है कि इसमें हम अपनी छवि भी देख लें। फिर रोज़-रोज़ आप इसे मिट्टी-राख और जूने से मांजने में इतनी मेहनत क्यों करते हैं?'
गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस मुस्कुरा उठे। हंसकर बोले, 'इस लोटे की यह चमक एक दिन की मेहनत से नहीं आई है। इसमें रोज़-रोज़ लगती धूल या मैल दूर करने के लिए प्रतिदिन मेहनत करनी पड़ती है। ठीक वैसे ही जैसे जीवन में आई बुराइयों, बुरे संस्कारों को दूर करने के लिए हमें प्रतिदिन संकल्प करना पड़ता है। संकल्प को अच्छे चरित्र में बदलने के लिए हमें प्रतिदिन के अभ्यास से ही दुगुर्णों का मैल दूर करना पड़ता है। लोटा हो या मनुष्य का जीवन, उसे बुराइयों के मैल से बचाने के लिए हमें प्रतिदिन ही कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, तभी इनकी चमक बची रह सकती है।'
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