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'मदर इंडिया' एक ऐसी फ़िल्म है जो न सिर्फ़ बॉक्स ऑफ़िस पर बहुत सफ़ल रही, बल्कि ऐसी फ़िल्म भी है जिसने अपने साथ जुड़े कमोबेश हर शख़्स की किस्मत भी बदल दी। बात अगर महबूब ख़ान से शुरू करें तो इस फ़िल्म से पहले वे 'रोटी'(42), 'अनमोल घड़ी'(46), 'अंदाज़'(49) और 'ऑन'(52) जैसी हिट फ़िल्में बना चुके थे, लेकिन 'मदर इंडिया' महज़ एक कामयाब फ़िल्म नहीं बल्कि कामयाबी का लहलहाता परचम है। इस परचम पर 'मदर इंडिया' के साथ ही महबूब ख़ान का नाम भी लिखा है।
फ़िल्म के कलाकारों की बात करें तो राजकुमार, राजेंद्र कुमार और सुनील दत्त तीनों फ़िल्म इंडस्ट्री में अपने पैर जमाने की कोशिश में लगे ज़रूर थे लेकिन जम नहीं पा रहे थे। 'मदर इंडिया' ने इन तीनों को एक साथ कामयाबी की राह तक पहुंचा दिया।
राजेंद्र कुमार को मौके मिलने शुरू हुए और धीरे-धीरे वो अपने समय का सबसे कामयाब सितारा बनकर 'जुबिली कुमार' कहलाया। वजह उसकी एक के बाद एक फ़िल्मों की सिल्वर और गोल्डन जुबिली होना था। राजकुमार पर तो लम्बी बात हो चुकी है। रही बात सुनील दत्त की तो सुनील दत्त की तो सारी ज़िंदगी ही बदल गई। इस फ़िल्म के बाद काम तो मिलने ही लगा लेकिन उससे भी बड़ी बात हुई नरगिस से उनकी शादी।
इस शादी की वजह थी फ़िल्म 'मदर इंडिया' में खलिहान में आग वाले मंज़र। इस बात को पिछले छह दशक में छह हज़ार बार लिखा और दोहराया गया होगा लेकिन मजबूरन मुझे भी यहां दोहराना पड़ेगा। फ़िल्म के लगभग अंतिम दृश्यों में गांव वालों के ग़ुस्से और सुक्खी लाला के बन्दूकधारी से अपने बेटे बिरजू (सुनील दत्त) की जान बचाने राधा (नरगिस) उसे खलिहान में फैली घास के बीच छुपा देती है। उसे बाहर निकालने के लिए लाला घास में आग लगवा देता है। राधा अपने बेटे की जान बचाने उस आग में घुस जाती है।
यह सारा शूट आऊटडोर में महबूब ख़ान के गांव बिलीमोरा से कोई तीस मील की दूरी पर आबाद गांव उमरा में एक किसान ईश्वरदास नेमानी के खेत पर हो रहा था। यह नाम जान-बूझकर लिख रहा हूं कि बता सकूं कि उसके खेतों में शूटिंग से बहुत नुक्सान हुआ लेकिन उसने अपने दोस्त महबूब ख़ान से एक पैसे का मुअावज़ा तक नहीं लिया। हां, फ़िल्म से प्रेरित होकर एक छोटा सा कविता संग्रह ज़रूर लिख डाला, जिसे नाम दिया – 'राधा।'
चलिए अब ज़रा इस आग वाले सीक्वेंस की बात करें। इस हादिसे को याद करते हुए नरगिस ने 10 मई 1957 को 'फ़िल्मफ़ेयर' में इस तरह दर्ज किया है।
'... मैं घास की इन गंजियों के घेरे में घुसती, उससे पहले मेरे कपड़े और ज़मीन पर पानी डाल दिया गया था। इसी बीच आग के एक भड़कते शोले ने पास के दूसरे ढेर में भी आग लगा दी। देखते ही देखते मेरे चारों ओर आग की एक दीवार सी खड़ी हो गई। घास के ढेर इतने ऊंचे-ऊंचे थे कि बाहर किसी को कुछ दिखाई ही न देता था कि अंदर क्या हो रहा है, सिवाय महबूब ख़ान और फरद्दून ईरानी के जो क्रेन पर बैठे ऊंचाई से यह देख रहे थे।
मैं पूरी तरह से अपने हवास खो चुकी थी। मेरे पांव के नीचे ज़मीन पर बिछा पानी सूख चुका था। मेरे पांव झुलसने लगे थे। मेरी तरफ़ आग के लपलपाते शोलों की ज़द से चेहरे को बचाने की गरज़ से मैंने अपने हाथों से चेहरा ढांप लिया। इसी बीच सुनील दत्त, जो कि इस सीक्वेंस का हिस्सा था, दौड़ता हुआ मेरे पास आया। उसे देखकर मेरे हवास कुछ-कुछ काबू में आए। मेरा आत्म-विश्वास लौटने लगा। मैंने उससे कहा : 'अभी गुंजाइश है सो हमे यहां से निकल भागना चाहिए।'
मेरा ख़्याल है कि जिस वक़्त हम बाहर आ रहे थे उसी वक़्त आग की लपटों ने हम दोनों को जला दिया। मैं शायद जिस्मानी तौर पर काफ़ी मज़बूत रही हूंगी कि मैं चेहरे,गर्दन और हाथों के झुलस जाने के बावजूद पूरी तरह सचेत रही।'
नौशाद साहब का बयान है कि आग में नरगिस का इस क़दर बदहवास भागना स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं था। '... महबूब साहब को नरगिस के आग में फंस जाने से घबराहट थी मगर उन्होंने फरद्दून ईरानी से यह भी कह दिया, 'जो होगा अल्लाह के हुक्म से होगा, मगर तुम कैमरा ऑन रखो।'
नरगिस-सुनील दत्त को फ़ौरन महबूब ख़ान के बिलीमोरा वाले घर में शिफ़्ट कर दिया गया। इलाज के लिए बम्बई से डाक्टरों को बुलवाया गया। 'इसी मकान की चार दीवारी में बिस्तर पर पड़े सुनील और नरगिस एक दूसरे को चाहने लगे।' (नौशाद)
शादी तक का किस्सा ज़रा लम्बा है, सो इतना कहकर आगे बढ़ते हैं कि दोनों की शादी हो गई। नरगिस ने 'मदर इंडिया' बनकर फ़िल्मों को अलविदा कह दिया और सुनील दत्त की कामयाबी का सफ़र शुरू हुआ। यहां एक दिलचस्प बात ज़रूर दर्ज करना होगी जो इसी बात से जुड़ी हुई है।
'मदर इंडिया' का मूल उनकी फ़िल्म 'औरत'(40) में है। 'औरत' की हीरोइन थीं सरदार अख़्तर। फ़िल्म की शूटिंग के दौरान ही महबूब ख़ान, सरदार अख़्तर के इश्क़ में गिरिफ़्तार हुए। शूटिंग के दौरान ही दोनों ने शादी कर ली। इतना ही नहीं, सरदार अख़्तर ने फ़िल्मों में काम करना बंद कर दिया और महबूब ख़ान की अब तक अस्त-व्यस्त ज़िंदगी को एक अनुशासन में बांधकर आगे बढ़ने में मदद की। नरगिस ने भी सरदार अख़्तर का ही अनुसरण किया।
सरदार अख़्तर से शादी के बाद महबूब ख़ान एक और नामवर प्रोड्यूसर-डायरेक्टर ए.आर. कारदार के हम ज़ुल्फ़ भी हो गए। कारदार की शादी सरदार अख़्तर की बहिन बहार अख़्तर से 30 के दशक में ही हो चुकी थी। वह भी एक फ़िल्म 'क़ातिल कटार' की शूटिंग के दौरान।
कन्हैयालाल ने 'मदर इंडिया' के बाद पचासों फ़िल्में की। सबमें शानदार काम किया लेकिन याद उनको हर वक़्त सुक्खी लाला की तरह ही किया जाता है। इसी तरह नन्हे मास्टर साजिद के लिए भी यह फ़िल्म एक वरदान साबित हुई। हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतिहास में जिन बाल कलाकारों को बार-बार याद किया जाता है, उनमें मास्टर साजिद का नाम सबसे आगे है। इतना ही नहीं, आए दिन फांकों पर बसर करने वाले इस बच्चे पर महबूब ख़ान और उनकी बीवी सरदार अख़्तर तो इस क़दर फ़िदा हो गए कि उसे अपना बेटा ही मान लिया। इस बच्चे की मुहब्बत में मुब्तला महबूब ख़ान को बाद में बहुत भारी कीमत भी चुकानी पड़ी। 'मदर इंडिया' के बाद उन्होंने साजिद को केन्द्र में रखकर एक फ़िल्म बनाई 'सन ऑफ़ इंडिया।' यह फ़िल्म इस बुरी तरह फ़्लॉप हुई कि महबूब ख़ान को बुरी तरह से तोड़कर रख दिया। कर्ज़ के भंवर में इस तरह उलझे कि पहले से बीमारियों में उलझा जिस्म बुरी तरह लरज़ खा गया। इस फ़िल्म के रिलीज़ के दो साल बाद ही वो चल बसे।
एक अजब सी बात है जिसके शिकार कई सारे बड़े डायरेक्टर हुए हैं - सुपर हिट के बाद एक सुपर फ्लॉप। राज कपूर ने 'संगम'(64) के बाद 'मेरा नाम जोकर'(70) तो 'शोले'(75) बनाने के बाद रमेश सिप्पी ने 'शान'(80) बना डाली।
चलिए कामयाबी और नाकामी का सिलसिला तो सबके साथ लगा ही रहता है, सो उसका मातम क्या। इस वक़्त बात करना है उससे भी ज़्यादा ज़रूरी चीज़ की। 'मदर इंडिया' में आख़िर सुक्खी लाला का क़त्ल हो जाता है। बचपन से लाला के ज़ुल्म-ओ-सितम की आग में झुलसता रहता बिरजू उसे मार डालता है। लेकिन इस क़त्ल से पहले वजाहत मिर्ज़ा और अली रज़ा इसकी एक-एक वजह भी बताते चलते हैं। इन वजूहात में सबसे पहले आता है बिरजू की मां राधा का कंगन। आज के नए दौर में बेटे के इन जज़्बात को समझना शायद मुश्किल हो कि हमारे समाज की क़दरें ब्यूटी पार्लर और पिज़्ज़ा-बर्गर में बदल चुकी हैं। बहरहाल, दुनिया बदले तो बदले, मैं तो अपना फ़र्ज़ पूरा कर लूं। लीजिए, डॉयलाग सुनिए और जानिए।
डाकू बन चुका बिरजू अपने गिरोह के साथ लाला के घर में घुसता है। बंदूक की नोक पर फंसे सुक्खी लाला की घिघी बंधी है।
'मेरी मां के कंगन ला'
'वो तो मैंने बहुत सम्हाल के रखे हैं बेटा। तू कहीं जाना नहीं। मैं चाबी ले के अभी आता हूं।'
बिरजू ख़ुद ही लाला की तिजोरी तोड़कर संदूकची से मां का कंगन निकालकर अपनी छाती से लगाकर रख लेता है। उसके बाद बारी आती है लाला की लूट के बही खातों की। बिरजू ज़मीन पर डालकर घासलेट डालता आग के हवाले करने लगता है।
'बिरजू भैया सब गड़बड़ हो जाएगा। इसका माल उसके घर और उसका इसके घर पहुंच जाएगा।'
'अरे नहीं बेटा, नहीं बिरजू बेटा। यह विद्या है बेटा विद्या। बड़ा पाप पड़ेगा बेटा'
'मैंने तेरी सारी विद्या सीख ली है। इसी विद्या से तूने हमारी फ़सल के तीन हिस्से सूद में लिए और हमे फांके दिए। इसी विद्या से तूने हमारी ज़मीन छीन ली। हमारे बैल छीन लिए, हमारा बाप छीन लिया और मेरी मां के हाथों में काले तागे से बांध दिया... एक सेर चांवल के बदले एक बीघा ज़मीन। एक मुट्ठी चने लेकर एक औरत की लाज का सौदा करने आया था... अब तू भी डाकू और मैं भी डाकू। मुझे कानून नहीं छोड़ेगा, मैं तुझे नहीं छोड़ूंगा।'
समाज के हर लुटेरे की शायद यही सज़ा है।
और ...
अब यूं है कि यह कहानी तो भोत लम्बी है, कब तक कहता रहूंगा? आपकी तरफ़ से हुक्म आया है कि इस फ़िल्म पर भी 'दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म' की तरह एक पूरी किताब लिख दूं। मेरा जवाब है - जो हुक्म! जुट जाता हूं।
फ़िलहाल, यह ख़बर तो दे ही दूं कि मिर्ज़ा ग़ालिब से लेकर इब्ने सफ़ी से होते हुए क़तील शिफ़ाई तक जिन हस्तियों की बातें आपके सामने पेश कर चुका हूं, वह सब और उससे ज़्यादा किताबी शक्ल में आ चुका है। नाम है 'कशकोल'। आप उसे पढ़ लें मैं तब तक कुछ और लिखता हूं।
जय-जय।
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