यह मान्यता है कि हंस शब्द दो शब्दों से उत्पन्न हुआ - ‘हं’ और ‘सो’। ‘हं’ निःश्वसन और ‘सो’ अंतःश्वसन का संकेतक है। इस प्रकार, हं-सो शब्द, जो कालांतर में हंस बन गया, हमें जीवन प्रदान करने वाले श्वास का मूर्त रूप है। हंस नामक पक्षी इस विचार की शारीरिक अभिव्यक्ति है। हमारे शरीर के भीतर और बाहर प्राण के प्रवाह से हममें जीवन का निर्माण होता है। इस तरह, हंस प्राण का प्रतीक है।
लेकिन हंस कौन-सा पक्षी है - स्वॉन या गूज़? विद्वान इस पर एकमत नहीं हैं।
साधारणतः, हंस शब्द गूज़ के लिए और राज-हंस शब्द विशेष रूप से स्वॉन के लिए उपयोग किया जाता है। विद्या की देवी सरस्वती हंस से जुड़ी हैं। आंध्र प्रदेश के परंपरागत कलमकारी चित्रों और तमिलनाडु के मंदिरों पर की गई नक्काशी में हंस को गूज़ दिखाया गया है। महाराष्ट्र के चित्रकाठी चित्रों में हंस को क्रेन या स्टॉर्क पक्षी के रूप में दिखाया जाता है और आधुनिक कैलेंडर कला में वह गूज़ का रूप लेता है।
तो क्या हंस गूज़, क्रेन या स्वॉन को संदर्भित करता है? इस बात पर सहमति नहीं है। विद्वानों का कहना है कि चूंकि स्वॉन की तुलना में गूज़ भारतीय उपमहाद्वीप के मूल निवासी हैं, इसलिए हंस के गूज़ होने की संभावना अधिक है। लेकिन, चूंकि स्वॉन गूज़ से कई गुना सुरुचिपूर्ण है, इसलिए लोकप्रिय कल्पना में स्वॉन ही सरस्वती का पवित्र वाहन है।
क्रेन पानी में एक पैर पर खड़े होकर पूरा ध्यान एक मछली पर बनाए रखते हुए झट से चोंच मारकर उस मछली को पकड़ सकता है। परिणामस्वरूप वह एकाग्रता का प्रतीक चिह्न बनकर भारत के कुछ भागों में सरस्वती के साथ जोड़े जाने के योग्य बन गया।
लोककथाओं के अनुसार गूज़/स्वॉन चमत्कारिक रूप से दूध को पानी से अलग कर सकता है। इसलिए वह बुद्धि का प्रतीक बन गया, जिसकी मदद से हम सच और झूठ में भेद कर सकते हैं। स्वभावतः गूज़ सभी ज्ञानियों और उनकी संरक्षक देवी सरस्वती से जुड़ गया। मायथोलॉजी में पानी सांसारिक विश्व से जुड़ा है; स्वॉन पानी पर तैरकर पानी को अपने शरीर से चिपकने नहीं देता। इस प्रकार वह तटस्थता और परिणामस्वरूप योग का चिह्न भी है।
स्वॉन का यह आध्यात्मिक रूप पश्चिम में पूर्णतः बदल जाता है। यूनानी मायथोलॉजी में ओलिम्पियाई देवों के राजा ‘ज़ीउस’ ने स्वॉन का रूप लेकर सुंदर राजकुमारी ‘लीडा’ को लुभाया। इस घटना से प्रेरित होकर गुस्ताव क्लिम्ट जैसे प्रसिद्ध पाश्चात्य कलाकारों ने लगभग कामोत्तेजक चित्र बनाए।
स्कैंडिनेवियाई मायथोलॉजी में मान्यता थी कि स्वॉन पक्षी वैलकरी नामक युवतियां थे, जो शूरवीर मृत योद्धाओं की आत्माओं की खोज में धरती पर झपट्टा मारती थीं। प्रारंभिक मायथोलॉजी में वैलकरी खून से सनीं डोम कौवी-देवियां थी, जो रणभूमि में लाशों पर चोंच मारती पाई जाती थीं, लेकिन बाद में उन्हें स्वॉन रूपी युवतियों का आदर्श रूप दिया गया। ये युवतियां सबसे वीर योद्धाओं को देवों के निवास ‘वालहाल्ला’ ले जातीं।
आयरलैंड की मायथोलॉजी के अनुसार दिन में आकाश में उड़ने वाले स्वॉन वास्तव में रात में सुंदर स्त्रियां थे। स्वॉन के कपड़े उतारकर वे जंगल की झीलों में नहाती थीं। यदि किसी पुरुष को किसी युवती के कपड़े मिलते, तो वह उसके साथ घर जाती और वहां वह उसकी पत्नी बनकर सेवा करती, उसके लिए खाना बनाती, उसका घर साफ़ रखती, यहां तक कि उसके बच्चों को जन्म भी देती। लेकिन जिस दिन उसे अपने कपड़े वापस मिल जाते, वह उन्हें पहन लेती और फिर से स्वॉन बनकर अपना मानव जीवन पूर्णतः भूल जाती।
यह विषय और उसके प्रकार यूरोप भर के लोकसाहित्यों में दोहराए जाते रहे हैं। कई गीत, नाटक और स्वॉन लेक जैसे बैले उनसे प्रेरित हैं। स्वॉन लेक में एक जादूगर का शाप राजकुमारी को स्वॉन में बदल देता है।
इस प्रकार, विश्व के अलग-अलग भागों में एक ही प्रतीक के अलग-अलग अर्थ हैं। हम यह दावा कर सकते हैं कि जिस विरह और ललक को पाश्चात्य मायथोलॉजी में रूमानी स्वरूप दिया गया, उसे पूर्वी मायथोलॉजी में आध्यात्मिक स्वरूप दिया गया। इसके बावजूद क्या ये बात रोचक नहीं है कि यह सुंदर पक्षी अपनी सुरुचि से इतना अद्भुत ज्ञान प्रसारित करता है।
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