अन्नू कपूर का खास कॉलम 'कुछ दिल ने कहा':मीरा: सवा दो साल में पूरी हुई थी नायक की तलाश

अन्नू कपूर2 महीने पहले
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फ़िल्म ‘मीरा’ के एक दृश्य में हेमा मालिनी के साथ विनोद खन्ना। - Dainik Bhaskar
फ़िल्म ‘मीरा’ के एक दृश्य में हेमा मालिनी के साथ विनोद खन्ना।

कुछ पाठकों ने फ़िल्म ‘मीरा’ के संगीत की दुविधा और अड़चनों वाला लेख पढ़कर सोशल मीडिया पर मुझसे पूछा कि ‘कुछ और परेशानियां आई हों इस निर्माण में तो वो भी लगे हाथ बता दीजिए।’ अपने प्रिय पाठकों का जितना दिल बहला सकूं, उतना ही अच्छा है। तो आज का ये लेख आधारित है प्रेम जी द्वारा निर्मित और गुलज़ार द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘मीरा’ के पति (नायक) की तलाश पर!

14 अक्टूबर 1975 को इस फ़िल्म का मुहूर्त हुआ। हेमा मालिनी को मीरा का रोल स्वीकार करने की प्रेरणा उनकी आध्यात्मिक गुरु मां के आशीर्वाद से प्राप्त हुई थी, सो उन्होंने शूटिंग की तारीख़ें भी तुरंत निकालकर दे दीं, जिसकी वजह से मुहूर्त के बाद हेमा मालिनी के दृश्यों की शूटिंग शुरू कर दी गई। वो अपने समय की सबसे बड़ी स्टार थीं, सो उनकी फ़ीस भी बहुत तगड़ी थी। निर्माता प्रेमजी को अगर फ़िल्म बनानी है तो हेमा मालिनी की फ़ीस भी देनी होगी!

हेमा मालिनी को मीरा का रोल स्वीकार करने की प्रेरणा उनकी आध्यात्मिक गुरु मां के आशीर्वाद से प्राप्त हुई थी।
हेमा मालिनी को मीरा का रोल स्वीकार करने की प्रेरणा उनकी आध्यात्मिक गुरु मां के आशीर्वाद से प्राप्त हुई थी।

लेकिन मीरा के पति के रोल की कास्टिंग अभी बाक़ी थी। मीरा के पति की खोज करने में प्रेम जी और गुलज़ार को उतनी ही मुश्किल हुई, जितनी मां-बाप को अपनी बेटी के लिए सुयोग्य वर ढूंढ़ने में होती है। मीरा के वर की कहां-कहां तलाश नहीं की गई? कहां-कहां शगुन की थाली नहीं भिजवाई गई? बहुत सारी जगह से इनकार होने पर अंततः अमिताभ बच्चन फिल्म में मीरा के पति बनने को राज़ी हो गए!

लेकिन 1975 तक अमिताभ बच्चन का भाग्य ज़ंजीर, शोले, दीवार, ज़मीर, चुपके चुपके, मिली आदि सफल फ़िल्मों के बाद बुलंदी पर पहुंचने लगा था और निरंतर काम का बोझ उन पर लदा था। एक-एक दिन क़ीमती था, इसलिए हेमा मालिनी और अमिताभ बच्चन की साथ-साथ शूटिंग की डेट्स मिल पाना मुश्किल हो रहा था, जिसकी वजह से शूट शुरू करने से पहले ही अमिताभ बच्चन ने मीरा को छोड़ दिया।

अब मीरा के लिए फिर से नए वर की खोज शुरू हो गई, मगर इस खोज में भी कई महीने लग गए। जब कई महीनों बाद भी कोई स्टार नहीं मिल पाया तो सोचा कि क्यों ना किसी नए अभिनेता को मीरा के पति राजा भोजराज सिसोदिया का रोल दे दिया जाए। लेकिन निर्माता प्रेम जी को ये सुझाव व्यावसायिक दृष्टिकोण से बिल्कुल उचित नहीं लगा।

नए कलाकार को लेकर फ़िल्म को बेचना मुश्किल हो जाएगा, तो उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया और निर्णय दे दिया कि इस रोल को करेगा तो एक स्टार ही। सो फिर ज़ोर-शोर से मीरा के वर की तलाश में सब जुट गए। फ़िल्म मुहूर्त के लगभग सवा दो साल बाद जनवरी 1978 में आख़िरकार मीरा का वर मिल गया और ये वर था विनोद खन्ना!

अमिताभ बच्चन का भाग्य ज़ंजीर से ऐसे चढ़ा कि फिर उनके पास टाइम ही नहीं रहा। इसलिए उन्होंने बाद में मीरा फिल्म में नायक बनने से इनकार कर दिया।
अमिताभ बच्चन का भाग्य ज़ंजीर से ऐसे चढ़ा कि फिर उनके पास टाइम ही नहीं रहा। इसलिए उन्होंने बाद में मीरा फिल्म में नायक बनने से इनकार कर दिया।

विनोद खन्ना ने केवल एक दिन की मुलाक़ात के बाद इस फ़िल्म को करने की स्वीकृति दे दी। बात मौखिक थी। कोई लिखा-पढ़ी वाला अनुबंध नहीं था। सब खुश थे कि चलो मीरा का भोजराज मिल गया। विनोद खन्ना ने सितंबर 1978 में शूटिंग के लिए समय भी दे दिया। बस इसी दौरान फ़िल्म इंडस्ट्री के कुछ लोगों के चित्त में जो वैचारिक और आध्यात्मिक क्रांति घट रही थी, उसका अप्रत्याशित रूप से फ़िल्म मीरा पर भी असर पड़ गया।

आचार्य रजनीश से फिल्म जगत के कई लोग प्रभावित थे।
आचार्य रजनीश से फिल्म जगत के कई लोग प्रभावित थे।

प्रसिद्ध निर्देशक विजय आनंद को संगीत निर्देशक कल्याण जी ने अपने घर पर आए भगवान रजनीश से (तब वो ओशो या ओशो रजनीश नहीं पुकारे जाते थे) परिचय करवा दिया, जिनके प्रबल क्रांतिकारी विचारों में डूबकर विजय आनंद उनके शिष्य बन गए और भगवान रजनीश के तार्किक व नूतन दृष्टिकोण से ओतप्रोत होकर वे फ़िल्म इंडस्ट्री में उनके अध्यात्म का प्रचार और प्रसार करने लगे।

इसकी तरंग में महेश भट्ट और विनोद खन्ना भी लिप्त हो गए और विनोद खन्ना ने तो भगवान रजनीश का संन्यासी होकर उनके साथ ओरेगन (अमेरिका) में बन रहे रजनीशपुरम में बस जाने की घोषणा भी कर दी। सबकुछ तज के संन्यासी होकर अमेरिका में प्रवास करना ही एकमात्र ध्येय रह गया!

विनोद खन्ना की इस घोषणा ने पहले से ही मुसीबतों से घिरे निर्माता प्रेम जी के दिल पर आरी चला दी। फ़िल्म का बजट इतना समय बीत जाने पर अपनी सीमा से बाहर जा चुका था। हेमा मालिनी की फ़ीस देना भारी पड़ने लगा था। इसलिए उन्होंने हेमा से अनुरोध किया कि वो पेमेंट का सिस्टम ‘पर डे’ के अनुसार कर लें जिसे हेमा ने स्वीकार कर लिया। इसके अनुसार प्रत्येक दिन शूटिंग के बाद प्रेम जी नोटों से भरा लिफ़ाफ़ा हेमा मालिनी को सौंप देते थे।

विनोद खन्ना से विनती की, चिरोरी की तो उन्होंने वादा किया कि वो मीरा फ़िल्म की अपनी शूटिंग निपटाने के बाद ही संन्यासी होकर अमेरिका कूच करेंगे और ऐसा ही हुआ।

साल 1975 में जो फ़िल्म शुरू हुई थी, वह 25 मई 1979 को रिलीज़ हुई। लेकिन तब तक इसके निर्माण में जितना धन खर्च हो चुका था, उस धन की वापसी की आस में सब थे, परंतु तुषारापात हो गया जब ये फ़िल्म असफल रही।

गुरु मां का आशीर्वाद या ओशो रजनीश का Transcendental Meditation फ़िल्म मीरा का कल्याण ना कर सका। वाणी जयराम को ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ गीत के लिए फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ गायिका का पुरस्कार प्रदान किया गया।

वैसे बहुत तटस्थ भाव से कह रहा हूं कि उस वर्ष जो भी गीत नॉमिनेट हुए थे, उनमें बहुत ज़्यादा दम भी नहीं था। तो अवार्ड देने वालों ने संत मीरा को सम्मान देते हुए अवार्ड प्रदान कर दिया। बाक़ी हेमा मालिनी का बेस्ट एक्ट्रेस श्रेणी में नामांकन था, परंतु फिल्मफेअर अवार्ड जया बच्चन ले गईं।

आचार्य रजनीश के साथ विनोद खन्ना।
आचार्य रजनीश के साथ विनोद खन्ना।

विनोद खन्ना 1982 तक सबकुछ छोड़ के अमेरिका चले गए और वहां रजनीशपुरम में जो-जो हंगामे और विवाद हुए, उन पर आधारित एक वेब सीरीज़ ‘वाइल्ड वाइल्ड कंट्री’ आप ओटीटी पर देख सकते हैं। ओशो को अमेरिका से पलायन करना पड़ा और उसमें फंस गईं उनकी सचिव शीला (असली नाम शीला अम्बालाल पटेल। संयोग से वो मेरी मित्र हैं। अभी पिछले साल 21 दिसम्बर को हमने साथ ही लंच लिया था)।

अमेरिकी जेल में 39 महीने काट के इधर-उधर भटकते और संघर्ष करते अब वे स्विट्ज़रलैंड में राइनफेल्डन के नज़दीक मेसप्राच नामक एक गांव में मानसिक रूप से संतप्त लोगों के लिए मातृ सदन (मदर्स होम) चलाती हैं। आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है।

मां शीला आज भी ओशो को भगवान कहकर संबोधित करती हैं, जबकि महेश भट्ट ने ओशो को शब्दों में फंसाकर रखने वाला ठग बताया। ख़ैर अंधभक्ति और अंध घृणा दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

साधना, तपस्या, अध्यात्म में जब गणित शामिल होता है, तब वो संगठन बनने लगता है और ऐसा होते ही आश्रम ऑफ़िस बन जाते हैं। ऑफ़िस में पैदा होती है राजनीति, तिकड़मबाज़ी और फिर ध्यान साधना अध्यात्म सब दूषित होकर एक ना एक दिन एक्सपोज़ हो जाते हैं। हम सबने ये देखा है, कई कई बार!

जो भीड़ में भी अकेला और मस्त रहे और जो अकेले में भी मस्त रहे, वो ही असल में संन्यासी है। आज्ञा दें ! जय हिंद! वंदे मातरम!