अन्नू कपूर का खास कॉलम 'कुछ दिल ने कहा':आरडी बर्मन के 5 रुपए की वह अनसुलझी गुत्थी!

अन्नू कपूर2 महीने पहले
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मैं 4 जनवरी 1994 को माउंट मैरी रोड के एक बंगले में गोविंद निहलानी की फ़िल्म ‘द्रोह काल’ की शूटिंग कर रहा था। तभी एक दुखद समाचार मिला कि राहुल देव बर्मन नहीं रहे। गोविंद निहलानी ने थोड़े समय पश्चात ही लंच के बाद शूटिंग समाप्त करने की घोषणा कर दी। मैं तुरंत राहुल देव बर्मन के सांताक्रुज़ निवास की तरफ़ रवाना हो गया। परंतु जब तक हम पहुंचते, तब तक उनका शरीर अंतिम यात्रा के लिए निकल चुका था। अब वहां सिवाय उनकी पत्नी आशा भोंसले के कोई नहीं दिखा, जो एक कमरे में अकेली बैठी थीं। मेरी उनसे मुलाक़ात थी। सो शोक व्यक्त करने के लिए उनके पास ही बैठ गया। हम बहुत समय तक मौन रहे। फिर वे बोलीं कि सब चले गए, तुम क्यों बैठे हो? मैंने कहा, आपके पास भी किसी का रहना ज़रूरी है, सो मुझे रहने दीजिए।

आरडी बर्मन के साथ आशा भोंसले।
आरडी बर्मन के साथ आशा भोंसले।

इस नश्वर संसार से मुक्ति मिलते ही सब चले जाते हैं, किंतु जो यहां बचे रहते हैं उनके पास जाने वाले की मीठी-कड़वी यादों के अलावा जो कुछ बचा होता है, उसकी महत्ता बहुत अधिक है और वो है कि जाने वाला अपने पीछे कितना धन, संपदा, सम्पत्ति छोड़कर गया है! किसके लिए कितना छोड़ा गया है, इसकी चर्चा खुले में तो नहीं की जाती, परंतु मिर्च-मसाले के साथ चर्चा का बाज़ार अंदरख़ाने बहुत गरम रहता है, इसमें मुझे कोई शक नहीं है। लिहाजा, राहुल देव बर्मन की मृत्यु के चार महीने बाद यानी 3 मई 1994 को सुबह 11 बजे सांताक्रुज़ वेस्ट के सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया की शाखा में एक ज़बरदस्त सस्पेंस छा गया। बैंक के लॉकर रूम में मौजूद थे पुलिस इंस्पेक्टर खोपड़े और उनके कुछ सहायक, आशा भोंसले की बेटी वर्षा और उनके वकील रवींद्र पई, बैंक के मैनेजर व सहायक, और राहुल देव बर्मन के सेक्रेटरी भरत अशर। प्रत्येक व्यक्ति की नज़रें टिकी थीं लॉकर नंबर SBD पर, जिसे चाबी नंबर 1035 से खोला जाना था। राहुल देव बर्मन के निधन के बाद एक विकट समस्या सामने आ गई थी, क्योंकि इस लॉकर पर दावा करने के लिए पत्नी आशा भोंसले को बहुत जतन करने पड़े थे। उनका मानना था कि उनके पति के इस लॉकर में सम्पत्ति के कुछ काग़ज़ात, गहने और हीरे की ख़ानदानी अंगूठी वग़ैरह होनी चाहिए। पहले तो आशा भोंसले को इस लॉकर की चाबी नहीं मिली, क्योंकि बैंक ने उन्हें बताया कि राहुल देव बर्मन के ज़िंदा रहने से अब तक ये लॉकर कभी भी खुला नहीं और बर्मन साहेब ने इसका नामिनी अपने सेक्रेटरी भरत अशर को बनाया था। लेकिन भरत ने अपने कथन में साफ़ बताया कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।

आशा भोंसले ने लॉकर वाला मामला पुलिस तक पहुंचा दिया।
आशा भोंसले ने लॉकर वाला मामला पुलिस तक पहुंचा दिया।

आशा भोंसले ने मामला पुलिस तक पहुंचा दिया। चूंकि यह वीआईपी हाई प्रोफ़ाइल केस था, तो तुरंत कार्यवाही करके पुलिस ने लॉकर सील करवा दिया। लेकिन रहस्य जब तक खुल नहीं जाए, तब तक मनुष्य का चित्त शांत नहीं होता और यहां तो धन-सम्पदा की आशाएं जाग्रत हो रही थीं। सो कौतूहल, बेचैनी, धड़कनें बढ़ना स्वाभाविक था। तो अदालत की मदद ली गई, जिसके आदेश पर 3 मई 1994 को उपरोक्त व्यक्तियों की उपस्थिति में ये लॉकर तोड़ा जाना था। बैंक वालों ने इस कमरे की सारी लाइट्स जला रखी थीं और साथ में बड़ी-सी टॉर्च भी ले रखी थी, ताकि पतली, महीन, बारीक से बारीक सोने की चेन या कोई सिक्का, चांदी का बिस्किट भी छूट ना जाए। पहले पुलिस का सील किया ताला खुला। उसके बाद चाबी नंबर 1035 से लॉकर खोला गया। हृदय गति तेज़ी में थी, ये पूरे विश्वास से कह सकता हूं, लेकिन लॉकर खुलने पर जो कुछ उसमें दिखा, उसे देखकर किसी को भी यक़ीन नहीं हो सका। टॉर्च की रोशनी हर कोने में दौड़ी, लेकिन जो था वो सबके लिए दुनिया के अजूबे से कम नहीं था। उस लॉकर में ना कोई सम्पत्ति के दस्तावेज़, ना सोने-जवाहरात थे, बल्कि वहां सबको मुंह चिढ़ाता रखा था पांच रुपय्ये का एक नोट! पांच का एक नोट! सबको चक्कर से आ गए, पूरे लॉकर रूम में एक अजीब-सा हंगामा मच गया। पांच का नोट? सवालों पर सवाल घूमने लगे। क्या कोई व्यक्ति सिर्फ़ पांच के नोट को बैंक लॉकर में सुरक्षित रखने के लिए किराये पर लॉकर लेगा और हज़ारों के रूप में सालाना लॉकर का किराया चुकाएगा? इस पांच के नोट ने सवाल ज़रूर उठाए। इसका जवाब ना आशा भोंसले के पास था और ना ही भरत अशर के पास, मगर जिसके पास था वो अब वापस नहीं लौटने वाला था। मैं कह नहीं सकता कि इस पांच के नोट ने कितनों को कितनी निराशा दी होगी और उसके बाद राहुल देव बर्मन की चल-अचल सम्पत्ति का क्या हुआ? ज़ाहिर है उस पर उनकी पत्नी का पूर्ण अधिकार होना चाहिए। लेकिन पांच के नोट का रहस्य तब से अब तक बना हुआ है और उसकी गुत्थी अभी तक सुलझी नहीं है! उर्दू के एक शेर से प्रभावित होकर राहुल देव बर्मन ने आनंद बक्शी का लिखा फ़िल्म ‘नमक हराम’ में एक गीत कम्पोज़ किया था। पहले ऑरिजिनल सुन लीजिए, आप सबकी तवज्जो चाहूंगा:

राहुल देव बर्मन ने ‘नमक हराम’ में एक गीत कम्पोज़ किया था, जो मूलत: गालिब द्वारा लिखी नज़्म पर आधारित था।
राहुल देव बर्मन ने ‘नमक हराम’ में एक गीत कम्पोज़ किया था, जो मूलत: गालिब द्वारा लिखी नज़्म पर आधारित था।

चंद तस्वीरें बुतां चंद हसीनों के ख़ुतूत, बाद मरने के मिरे घर से ये सामां निकला। कुछ इस शेर को बज़्म अकबराबादी का भी बताने लगे हैं, लेकिन ये शेर ग़ालिब का ही है जो दीवाने ग़ालिब में पृष्ठ 448 पर 9 वें शेर के रूप में मौजूद है। बहरहाल राहुल देव बर्मन का कम्पोज़ किया गीत जो रज़ा मुराद के अंतिम पलों में राजेश खन्ना पर फ़िल्माया गया, वो ये रहा: मैं शायर बदनाम हो ओ मैं चला मैं चला, महफ़िल से नाकाम हो ओ मैं चला मैं चला। मेरे घर से तुमको कुछ सामान मिलेगा, दीवाने शायर का इक दीवान मिलेगा और इक चीज़ मिलेगी टूटा ख़ाली जाम हो ओ मैं चला मैं चला… धन भूल जाओ। राहुल देव बर्मन ने अपने सृजन से आने वाली नस्लों के लिए संगीत की जो वसीयत छोड़ी है, वो अमूल्य है, शाश्वत रहेगी। आज इतना ही, आज्ञा दीजिए, चलता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार हों। जय हिंद! वंदे मातरम!