भय और लोभ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और मनुष्य की उत्पत्ति से लेकर आज तक ये दोनों भाव विभिन्न रूपों में लगभग हर व्यक्ति में मौजूद रहे हैं। भय शारीरिक और मानसिक कष्टों का!
इस भय, डर, ख़ौफ़ के जंजाल में अदृश्य पाशविक शक्तियां जैसे प्रेत, पिशाच, जिन्न, डायन, शैतान, डेविल इत्यादि अर्थात बुरी आत्माओं या शैतानी ताकतों से निबटने के लिए, स्वयं की रक्षा के लिए तकरीबन हर धर्म ने अपने अनुयायियों को मंत्र, आयत, प्रार्थना के माध्यम से दिशा-निर्देश दिए हैं। उदाहरण के लिए श्री हनुमान चालीसा का निम्नलिखित छंद है:
भूत पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे।
या फिर महामृत्युंजय मंत्र का जाप: ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥ प्रभु जीजस क्राइस्ट के अनुयायी अमूमन PSALMS 9: 1-16, PSALMS 37: 1-40, MATTHEW 6: 9-13 का पाठ करते हैं। मुसलमान क़ुरान-ए-पाक के सूरा 23 अल मोमीनून की आयत 97, सूरा 113 अल फ़लक की आयत 1 तथा सूरा अल-बक़रा के आयतुल कुर्सी को पढ़कर शैतानी ताकतों का सामना करते हैं! हर चीज के विकल्प तलाशना इंसानी फितरत है। तो फिर शुरू हुए जादू टोना, गंडे तावीज़, झाड़ फूंक, टोटके वगैरह! आपकी धड़कनें बढ़ाना मेरा उद्देश्य नहीं है, क्योंकि मैं तो आज एक फिल्मी दुनिया की कहानी की नींव रख रहा हूं। एक रहस्यमयी औरत। रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ जाए, ऐसा वाक़या जिसका जिक्र मैंने काफी अरसे पहले अपने रेडियो शो में भी किया था और जिसका जिक्र स्वर्गीय दिलीप कुमार की आत्मकथा में भी है।
निर्देशक समी उल्लाह सनी (एस. यू. सनी) के साथ दिलीप कुमार 1948 से लेकर 1955 तक मेला, बाबुल, उड़न खटोला जैसी तीन बहुत ही कामयाब फिल्में कर चुके थे और अब चौथी पिक्चर ‘कोहिनूर’ बन रही थी। इसमें दिलीप कुमार की हीरोइन मीना कुमारी थीं, जिनके साथ भी वे फिल्म फुटपाथ, आजाद और यहूदी में काम कर चुके थे और यह फिल्म ‘कोहिनूर’ भी मीना कुमारी के साथ चौथी फिल्म थी। आजाद के बाद एक बार फिर हल्के-फुल्के विनोदप्रिय विषय की फिल्म में ये दोनों साथ थे। बाकी दो फिल्मों में संजीदा रोल थे, जिसके लिए ये दोनों कलाकार बहुत सक्षम और सफल माने जाते थे।
सनी के साथ दिलीप कुमार की अच्छी बनती थी। सो एक दिन दिलीप साहब ने उनसे कहा कि हमें आउटडोर शूट के लिए अच्छी लोकेशन देखकर आना चाहिए। सनी साहब मान गए और अपने लिए जरूरी सामान पैक करने के वास्ते घर चले आए।
सनी साहब की बेगम साहिबा काफी रहस्यमयी लेडी थीं। जादू टोना, गंडे तावीज़, झाड़-फूंक सबमें ही दखल रखती थीं। तिलिस्म और तंत्र-मंत्र की कायल थीं। बेगम साहिबा ने सनी साहब को कह दिया कि इस रोड ट्रिप में वो भी साथ चलना चाहती हैं। सनी साहब ने समझाने की कोशिश की। हर तरह का तर्क देकर समझाया, लेकिन बेगम जिद पकड़कर बैठ गईं और बहुत खफा हो गईं।
उधर सनी सामान पैक करके दिलीप कुमार के घर पहुंच गए। सनी ने दिलीप कुमार से अपनी बेगम के बारे में या उनकी जिद की कोई चर्चा तक नहीं की। दिन ढलते ही कार से दिलीप कुमार, सनी और कैमरा सहायक निकल पड़े। इस कार में ड्राइवर समेत कुल चार आदमी थे। किसी महिला के बैठने की कोई गुंजाइश नहीं थी। सनी भी जानते थे कि इस पॉइंट को बेगम समझ नहीं सकेंगी।
बहरहाल, ये कारवां बॉम्बे से कोई 190 किमी की दूरी पर बसे नाशिक की ओर निकल पड़ा। कुछ दूर के बाद सूरज डूब गया और धीरे-धीरे रात उतरने लगी। अंधेरा तारी होते ही अचानक मौसम बदल गया। इस महीने में ये बदलाव कभी नहीं देखा था। और देखते ही देखते जबरदस्त आंधी के साथ बिजली कड़कड़ाने लगी। आंखों को चुभती मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। कार की फ्रंटस्क्रीन पर बड़े-बड़े ओले गिरने लगे। ड्राइवर ने वाइपर फुल स्पीड में चलाया तो सही, लेकिन प्रबल वेग के सामने तुच्छ वाइपर की कोई औकात नहीं बची।
मंजिल अभी दूर थी। आगे का रोड दिख नहीं रहा था। ड्राइवर बहुत धीरे-धीरे संभालकर गाड़ी चला रहा था। सनी ने सलाह दी कि अब कहीं रुककर मौसम के ठीक होने का इंतज़ार किया जाए। यह सलाह उचित भी थी और सुरक्षा भी इसी बात में थी, क्योंकि बारिश, बिजली और आंधी रुकती नजर नहीं आ रही थी। ड्राइवर को साइड के कच्चे में एक झोपड़ी-सी नजर आई, जिसे देखकर सबने फिलहाल इसी को अपना शेल्टर बनाने का निर्णय ले लिया।
ड्राइवर ने कार को कच्चे में झोपड़ी की दिशा में मोड़ दिया और हेडलाइट को ऑन ही रहने दिया। दिलीप कुमार और सनी कार से उतरकर झोपड़ी की तरफ बढ़े और नजदीक पहुंचकर देखा कि कच्ची-सी एक टूटी छत और एक टाट की बोरी परदे की तरह लटकी थी। अंदर कुछ लकड़ियां, कुछ कचरा जैसा सामान दिखा और पास पड़ी थी एक टूटी बेंच। एक खूंटी से बंधी बकरी मिमियाकर रहम की भीख मांग रही थी। सनी उस बकरी को खोलकर आजाद करने के लिए जैसे ही आगे बढ़े कि यकायक तूफ़ानी हवा के एक झोंके से वह टाट की बोरी का पर्दा उठ गया और उसके पीछे जो दिखाई दिया, वो मंज़र हैरतज़दा और बेहद ख़ौफ़नाक था।
बोरी का पर्दा उठते ही उसके पीछे खड़ी थीं एस.यू. सनी की बेगम साहिबा। लाल आंखों व क़ातिल मुस्कराहट के साथ। कैमरा सहायक को तो लगभग दिल का दौरा-सा ही पड़ गया। वो दहशत के मारे कांप रहा था। सनी भी अवाक् जड़वत बने अपनी पत्नी को देखते रहे।
दिलीप कुमार के अंदर के पठान ने उन्हें गिरने से बचा लिया। फिर सनी की बीवी या उस औरत ने अपने होंठों से रेड लिपस्टिक पोंछी और बस ग़ायब हो गई। और उसके गायब होते ही मौसम भी साफ हो गया। बारिश, आंधी जैसे शुरू हुई थी, वैसे ही तुरंत थम भी गई। टीम लोकेशन की तरफ बढ़ ली, मगर रास्ते भर कोई किसी से एक शब्द नहीं बोला। दूसरे दिन अपना काम खत्म करके सब वापस सुरक्षित अपने-अपने घरों को लौट आए। जो हुआ, उसकी कोई चर्चा करना भी नहीं चाहता था।
दूसरे दिन दोपहर के खाने के बाद दिलीप कुमार चुप न रह सके और अपनी बहनों को इस हैरतअंगेज, तिलिस्मी, ख़ौफ़नाक मंज़र का वाक़या जब बयान किया तो सब ऐसे डरे जैसे दर्शक अल्फ्रेड हिचकॉक की फिल्में देखकर थरथरा उठते हैं। दिलीप कुमार ने अपना किस्सा खत्म किया।
उसके तुरंत बाद उनके बंगले के गेट पर कार के हॉर्न की आवाज सुनाई दी। एक बहन ने कौतूहलवश जब नीचे देखा तो बुरी तरह कांप उठी। उसकी ये हालत देखकर जब दिलीप कुमार करीब पहुंचे तो उसने इशारे से नीचे देखने को कहा। नीचे कार से बाहर निकलकर एक आदमी और एक औरत बंगले के जानिब बढ़ रहे थे और वो कोई और नहीं, सनी और उनकी बेगम साहिबा थीं।
वो दिल नवाज़ हैं लेकिन नज़र शनास नहीं, मेरा इलाज मेरे चारागर के पास नहीं। मुझे ये डर है तेरी आरज़ू न मिट जाए, बहुत दिनों से तबीयत मेरी उदास नहीं। प्रणाम। जय हिन्द! वंदे मातरम!
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