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असम में ही ‌1288 करोड़ रु. खर्च; 11 राज्यों में एनआरसी की मांग, सात मुख्यमंत्री तक पक्ष में

4 वर्ष पहले
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यह फोटो बहादुर लिंबू और भरत लिंबू का है। दोनों दिवंगत भागी बहादुर के बेटे हैं। भागी 1962 के भारत-चीन युद्ध में गोरखा रेजीमेंट की ओर से लड़ चुके हैं। - Dainik Bhaskar
यह फोटो बहादुर लिंबू और भरत लिंबू का है। दोनों दिवंगत भागी बहादुर के बेटे हैं। भागी 1962 के भारत-चीन युद्ध में गोरखा रेजीमेंट की ओर से लड़ चुके हैं।
  • गृहमंत्री ने पूरे देश में एनआरसी लागू कराने की बात कही है, क्या 130 करोड़ लोगों को नागरिकता साबित करनी होगी?
  • शाह के इस बयान को गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश सहित सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों का समर्थन
  • पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और भाजपा के सहयोगी बिहार के सीएम नीतीश कुमार इसके सख्त खिलाफ

नई दिल्ली. असम में नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजनशिप (एनआरसी) की अंतिम सूची आने के बाद पूरे देश में एनआरसी बनाने पर बहस शुरू हो गई है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह असम में ही घोषणा कर चुके हैं कि वह पूरे देश में इसे लागू करेंगे। उनके इस बयान को गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश सहित सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने समर्थन देते हुए अपने-अपने प्रदेशों में एनआरसी बनाने की मांग की। हालांकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी व भाजपा के सहयोगी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसके सख्त खिलाफ हैं। ममता तो असम की एनआरसी सूची को ही रद्द करने की मांग कर रही हैं।

राजीव गांधी सरकार के समय 1985 में हुए असम समझौते के तहत ही राज्य में एनआरसी लागू किया गया है। करीब 28 साल तक ठंडे बस्ते में पड़े रहने के बाद एनआरसी पर 2013 में सुप्रीम की निगरानी में काम शुरू हुआ। इसके तहत सिर्फ उन्हीं लोगों व उनके परिजनों को एनआरसी में शामिल किया गया, जिनके नाम 1951 के एनआरसी में थे या फिर 24 मार्च 1971 की वोटर लिस्ट में। सरकार ने जब एनआरसी की पहली ड्राफ्ट लिस्ट जारी की थी तो करीब 40 लाख लोगों को इससे बाहर कर दिया था। इसके बाद एनअारसी से बाहर हुए लोगों ने अपनी नागरिकता के प्रमाण जमा करवाए। इसके बावजूद गत 31 अगस्त को जारी अंतिम ड्राफ्ट सूची से 19 लाख लोग बाहर हो गए हैं। इनमें कई लोग तो वह हैं, जो सेना मेें रह चुके हैं। हालांकि इन लोगांे के पास अब भी अपील का मौका है।

इस सूची को लेकर जारी विवाद के बीच पूरे देश के 130 करोड़ लोगों के लिए एनआरसी बनाने की मांग ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। क्योंकि एनआरसी बनाना जितना विवादित है, उतना ही खर्चीला भी। असम के 3.3 करोड़ लोगांे के लिए एनआरसी पर ही 1288 करोड़ से अधिक का खर्च हुआ है। इसके अलावा बड़ा सवाल यह भी है कि क्या अब 130 करोड़ लोगों को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। असम में एनआरसी लागू करने की कई वजहें थीं। बांग्लादेश युद्ध के समय और उसके बाद जिस तरह से वहां घुसपैठ हुई थी, उसने राज्य की डेमोग्राफी को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। 2001 से 2011 के बीच राज्य में हिंदुओं की जनसंख्या में तीन फीसदी की कमी आई थी, वहीं मुसलिमों की जनसंख्या तीन फीसदी बढ़ गई थी।  कई जिलों में असका अनुपात 70 प्रतिशत से भी ज्यादा हो गया है।
 

शहीद का ही परिवार हो गया एनआरसी से बाहर
भागी बहादुर 1962 के भारत-चीन युद्ध में गोरखा रेजीमेंट की ओर से लड़ चुके हैं। बस्का के अंबारी गांव में रहने वाला उनका परिवार अब एनआरसी की फाइनल लिस्ट से बाहर हो गया है। परिवार का सवाल है जब उनके पिता को देश के लिए दुश्मन से लड़ने पर मेडल्स मिल चुके हैं। ऐसे में वो बाहरी कैसे हो गए। एनआरसी की फाइनल लिस्ट से कुल 19 लाख 6 हजार लोगों को बाहर किया गया है। 
 

एनआरसी है क्या?
नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजन्स। अर्थात राज्य के मूल निवासियों का रिकार्ड। 8 जून 1979 को असम में छात्र संगठन ऑल असम स्टूडेंट यूनियन ने गैर भारतीयों को बाहर निकालने को लेकर आंदोलन शुरू किया। 1980 और 1982 के बीच 23 दौर की बातचीत के बाद तय हुआ कि 1951 और 1966 के बीच जो लोग भारत में रहे हैं उन्हें नागरिकता दी जाएगी। जो 1971  के बाद आए हैं उन्हें बाहर किया जाएगा। 1966 से 1971 के बीच आने वाले लोगों को फारेनर्स एक्ट 1946 के तहत डिटेक्ट किया गया। उनके नाम भी मतदाता सूची से हटा दिए गए। उनकी नागरिकता 10 साल के लिए बेदखल कर दी गई। ट्रिब्यूनल के माध्यम से उन्हें नागरिकता साबित करने के लिए कहा गया। 15 अगस्त 1985 को तत्कालीन पीएम राजीव गांधी ने असम में नागरिकों की गणना समेत नागरिकता की पहचान को लेकर मंजूरी प्रदान की। यही प्रक्रिया एनआरसी कहलाई।
 

हर बार अलग आई बाहरियोंं की संख्या
14 जुलाई 2004. तत्कालीन केंद्रीय गृहराज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने लोकसभा में बताया कि देश में 1.20 करोड़ बांगलादेशी रहते हैं। 
16 नवंबर 2016 केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने कहा था कि भारत में रहने वाले अवैध बांग्लादेशियों की तादाद 2 करोड़ है।
16 जुलाई 2019 को गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्‌डी ने लोकसभा में बताया कि 31 मार्च 2019 तक कुल 1,17,176 को विदेशी घोषित किया जा चुका है।
 

किन राज्यों में उठ रही है एनआरसी की मांग?
हरियाणा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, झारखंड, गुजरात अौर मेघालय के मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्य में एनआरसी की मांग करते रहे हैं। ओवरऑल देखें तो दिल्ली, तेलंगाना, त्रिपुरा और बंगाल में भी एनआरसी की मांग उठती रही है। भाजपा के मुख्यमंत्री मनोहर खट्‌टर, योगी आदित्यनाथ, विजय रूपाणी, त्रिवेंद्र सिंह रावत आदि जहां एनआरसी के पक्ष में हैं, वहीं बंगाल में ममता, बिहार में नीतीश इसका विरोध कर रहे हैं।
 

एनआरसी के पीछे नियम क्या है?
हाल ही में फॉरेनर्स (ट्रिब्यूनल्स) आर्डर 1964 में केंद्र सरकार ने एक बदलाव किया है। इसके तहत एनआरसी को असम के अलावा देश के अन्य राज्यों में लागू किया जा सकता है। इस बदलाव के बाद राज्य सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह राज्य में रह रहे विदेशियों की पहचान के लिए ट्रिब्यूनल स्थापित कर सके। यहां तक की जिला मजिस्ट्रेट स्वयं ट्रिब्यूनल स्थापित कर सकता है। नियमानुसार यदि कोई व्यक्ति एक बार बाहरी घोषित कर दिया जाता है तो उसे फाॅरेनर्स एक्ट 1946 के सेक्शन 4 के तहत डिटेन किया जा सकता है। असम में 6 डिटेंशन सेंटर्स में लगभग 1000 लोग हैं।
 

सर्वाधिक अवैध विदेशी कहां हैं?
यूं तो समूचे भारत में अवैध विदेशियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन भारत के उत्तर पूर्व के आठ राज्य असम, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम ऐसे राज्य हैं जहां पर घुसपैठ की समस्या सबसे अधिक है। दरअसल यह क्षेत्र छोटे से गलियारे जिसे \"चिकन नेक\' कहा जाता है के द्वारा भारतीय मुख्य भूमि से जुड़ा है। इस गलियारे की लंबाई 21 से 24 किमी है। इससे भूटान, म्यामार, बांग्लादेश और चीन जैसे देशों की सीमा जुड़ती है। यहीं से भारत में घुसपैठ सबसे अधिक होती है। 
 

एनआरसी की दर्द भरी कहानी

गारो से मुसलमान बने, ट्रायबल सर्टिफकेट था फिर भी साढ़े तीन साल डिटेंशन कैंप में रहना पड़ा: गुवाहाटी से करीब 123 किलो मीटर दूर ग्वारपाड़ा जिले का छोटा सा कस्बा है किशनई। इसके पाइकन पार्ट-1 में टीन के मकान में रहते हैं 60 वर्षीय रहीम अली। रहीम बताते हैं कि वे असम के ही गारो जनजाति के हैं और 1978 में मुसलमान बने। एक दिन वोटर लिस्ट प्रकाशित हुई और मेरे नाम के आगे डी लिख दिया गया। मुझसे स्थायी निवासी होने के सुबूत मांगे गए। चूंकि मुस्लिम धर्म अपनाने से पहले मेरा नाम चंबलेन मराक था। जिसे माना नहीं गया और मुझे 31 अक्टूबर 2015 को डिटेंशन कैंप में डाल दिया गया। 10 लोगों के परिवार में सिर्फ मेरा ही नाम आया। डिटेंशन कैंप में एक बड़े कमरे में करीब 90 लोग रहते थे। सोने के लिए केवल दो फुट चौड़ा पत्थर था करीब साढ़े तीन साल बाद जमानत मिली। इस दौरान वन विभाग की नौकरी भी छूट गई। चार बेटों में किसी की नौकरी नहीं लग पाई। अभी भी हर बुधवार को थाने में साइन करने जाना पड़ता है।
 

फिर से रैंडम सर्वे की मांग
हम चाहते हैं कि एनआरसी में एक बार फिर से बॉर्डर एरिया में 20 फीसदी और शेष राज्य के जिलों में 10 फीसदी से रैंडम सर्वे हो। जो लोग एनआरसी में अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए उनके वही अधिकार हों जो एक वीसा पर भारत में आने वालों के होते हैं। -हेमंत बिस्वा सरमा, वित्त-पीडब्ल्यूडी मंत्री असम

अब सर्वे की आवश्यकता नहीं
एनआरसी की प्रक्रिया असम के लिए आवश्यक थी। मुझे लगता है कि अब और सर्वे की आवश्यकता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर प्रतीक हजेला ने एनआरसी की प्रक्रिया को पूरा किया है और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि 27 फीसदी रैंडम सैंपलिंग हो गई है। जो लोग सूची से बाहर हैं, उन्हें प्रक्रिया के अनुसार दावा करना चाहिए। -देबब्रत सेकिया, नेता प्रतिपक्ष, असम विधानसभा

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