जमाना कहाँ से कहाँ चला गया, लेकिन बॉलीवुड यानी मुंबइया फ़िल्मिस्तान वहीं का वहीं खड़ा है। उसका दिमाग़ ख़ाली हो चुका है। कहानियों का उसके पास अकाल है। लगता है साउथ की फ़िल्मों के ट्रांसलेशन पर बॉलीवुड चल रहा है। चल क्या, घिसट रहा है। अब तो यह बात फ़िल्म समीक्षक कहने लगे। अगर कोई जमाने के साथ चल रहा है तो वह है साउथ। इसीलिए वहाँ की फ़िल्में बेहद पसंद की जा रही हैं।
समीक्षक कह रहे हैं- अब वो जमाना लद गया जब फ़िल्मों के नायक गोरे- चिट्टे हुआ करते थे। फ़िल्म ही क्यों, राजनीति और समाज में भी लोगों को अब अपने जैसा हीरो चाहिए। अपने बीच का हीरो चाहिए। वे उसी को पसंद करते हैं। राजनीति भी अब बदल रही है।
राजनेता जब हेलीकॉप्टर से उतरते हैं, झक सफ़ेद कुर्ते-पाजामे की चकाचौंध दिखाते हैं तो लोगों को लगता है, ये कहीं से अंग्रेज आ टपके हैं उन्हें लूटने। क्योंकि ये नेता उन्हें अपने जैसे नहीं लगते, जिन्हें वे अपना दुखड़ा सुना सकें। जिनके पास वे जब चाहें, जा सकें।
ख़ैर बात बॉलीवुड की करें तो ये इंडस्ट्री मात्र पाँच हज़ार करोड़ की है। देश में इससे बड़ा बाज़ार तो जूतों का है। टीवी और न्यूज़ इंडस्ट्री भी बॉलीवुड से बड़ी है। दरअसल, बॉलीवुड के लिए फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूशन को एन्लार्ज करने का काम किसी ने किया ही नहीं। न सरकार ने, न किसी और ने।
पहले बॉलीवुड की फ़िल्में दुनिया के कई देशों में देखी जाती थीं, अब ऐसा नहीं होता। कम से कम बीस - पच्चीस साल से तो ऐसा नहीं हुआ। हॉलीवुड दो हज़ार करोड़ की एक फ़िल्म बनाकर पाँच हज़ार करोड़ कमा लेता है, क्योंकि उनका डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम मज़बूत है। बॉलीवुड के लिए इस तरह कोई सोचता ही नहीं।
हाँ, बॉलीवुड फ़िल्मों के विरोध का बाजार ज़रूर बढ़ रहा है। पठान फ़िल्म का विरोध इसका ताज़ा उदाहरण है। एक फ़िल्म समीक्षक अजीत राय ने तो यहाँ तक कहा कि ये विरोध फ़िल्म का नहीं, बल्कि शाहरुख़ खान का है। शाहरुख़ अगर शाहरुख़ नहीं होते तो विरोध भी नहीं होता।
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