विजय मनोहर तिवारी (कोल्हापुर). करीब 1300 साल पुराने दुनिया के सबसे प्राचीन महालक्ष्मी मंदिर में रोज ही दिवाली की रौनक होती है। कई बातें हैं, जो करीब 40 हजार श्रद्धालुओं को रोज आकर्षित करती हैं। पर सबसे अहम है मंदिर का वास्तु। साल में दो बार नवंबर और जनवरी में तीन दिनों तक अस्ताचल सूर्य की किरणें गर्भगृह में महालक्ष्मी की प्रतिमा को स्पर्श करती हैं।
नवंबर में 9, 10 और 11 तारीख को और इसके बाद 31 जनवरी, 1 और 2 फरवरी को। पहले दिन सूर्य किरणें महालक्ष्मी के चरणों को स्पर्श करती हैं। दूसरे दिन कमर तक आती हैं और तीसरे दिन चेहरे को आलोकित करते हुए गुजर जाती हैं। इसे किरणोत्सव कहा जाता है, जिसे देखने हजारों लोग जुटते हैं। गर्भगृह में स्थित प्रतिमा और मंदिर परिसर के पश्चिमी दरवाजे की दूरी 250 फीट से ज्यादा है। किरणोत्सव के दोनों अवसरों पर परिसर की बत्तियां बुझा दी जाती हैं। महाराष्ट्र की उत्सव परंपरा में कोल्हापुर का महालक्ष्मी मंदिर झिलमिलाती कड़ी है।
भारतीय स्थापत्य की मिसाल
काले पत्थरों पर कमाल की नक्काशी हजारों साल पुराने भारतीय स्थापत्य की अद्भुत मिसाल है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में महालक्ष्मी हैं, उनके दाएं-बाएं दो अलग गर्भगृहों में महाकाली और महासरस्वती के विग्रह हैं। पश्चिम महाराष्ट्र देवस्थान व्यवस्थापन समिति के प्रबंधक धनाजी जाधव नौ पीढ़ियों से यहां देखरेख कर रहे हैं। वे बताते हैं कि यह देवी की 51 शक्तिपीठों में से एक है। दिवाली की रात दो बजे मंदिर के शिखर पर दीया रोशन होता है, जो अगली पूर्णिमा तक नियमित रूप से जलता है। यह मंदिर में दीपोत्सव का संदेश है। वैकुंठ चतुदर्शी के दिन पूरा परिसर दीपों से जगमगाएगा।
नवरात्रि पर भी होती है दिवाली जैसी रौनक
नवरात्रि में यहां हर दिन देवी पालकी में बाहर आकर पूरे परिसर में भ्रमण करती हैं। नवरात्रि की पंचमी के दिन महालक्ष्मी स्वर्ण पालकी में सवार होकर सात किलोमीटर दूर त्रंबोली माताजी से मिलने जाती हैं। आमदिनों में सुबह चार बजे से ही महालक्ष्मी के नियमित दर्शन शुरू हो जाते हैं। दूर-दूर से आए लोगों की कतार बाहर तक खड़ी दिखाई पड़ती है। साढ़े आठ बजते ही देवी को स्नान कराया जाता है। फिर पुरोहित उनके शृंगार में जुट जाते हैं। दर्शन का क्रम जारी रहता है। साढ़े ग्यारह बजे तक उनके दूसरे स्नान की बारी आती है और एक बार फिर देवी नए रूप में सजी-संवरी होती हैं। कभी पैठणी, कभी कांजीवरम और कभी पेशवाई रंगीन साड़ियों में सजी-धजी।
मान्यता- भगवान विष्णु से रूठकर तिरुपति से कोल्हापुर आई थीं देवी
रात नौ बजे शयन का समय है और अगले एक घंटे में निद्रा आरती के साथ ही मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। इस नियमित दिनचर्या में तीज-त्योहार और उत्सव के दिनों की रौनक सदियों पुरानी पूजा-परंपरा को एक अलग भव्यता प्रदान करती है। पुराणों में कहा गया है कि महालक्ष्मी पहले तिरुपति में विराजती थीं। किसी बात पर पति भगवान विष्णु से झगड़ा हो गया तो रूठकर कोल्हापुर आ गईं। इसी वजह से हर दिवाली में तिरुपति देवस्थान की ओर से महालक्ष्मी के लिए शॉल भेजी जाती है।
कोल्हापुर का महालक्ष्मी मंदिर सदियों की हुई उथल-पुथल में भी बचा रहा
महालक्ष्मी का दुनिया का सबसे पुराना मंदिर कोल्हापुर में है। यहां कई शासक आए और गए, लेकिन 1300 साल पुराने इस मंदिर में पूजा की परंपरा हमेशा कायम रही। मंदिर की साप्ताहिक पूजा में 54 पुरोहित परिवार शामिल रहे हैं। इनमें से एक परिवार के सदस्य योगेश पुजारी कहते हैं कि महालक्ष्मी की प्रतिमा मंदिर के निर्माण से भी पहले की है। तभी से यहां पूजा की अटूट परंपरा है। इतिहासकार योगेश प्रभुदेसाई बताते हैं कि मूल मंदिर का निर्माण 7वीं सदी के चालुक्य शासक कर्णदेव ने करवाया था। 11 वीं सदी में कोल्हापुर के शिलाहार राजवंश के समय मंदिर का विस्तार हुआ। शिलाहार वंश के राजा कर्नाटक में कल्याण चालुक्यों के मातहत कोल्हापुर में शासन करते थे। मंदिर के आसपास शिलाहार राजवंश के अलावा देवगिरि के प्रसिद्ध यादव राजवंश के भी शिलालेख मिले हैं। तेरहवीं सदी तक शिलाहार वंश का राज चला, लेकिन बाद में देवगिरि के यादवों ने उनका अध्याय खत्म कर दिया। कोल्हापुर का महालक्ष्मी मंदिर बीच की सदियों में हुई उथल-पुथल के दौरान भी बचा रहा। 1715 में विजयादशमी के दिन इसकी पुन:स्थापना का उल्लेख है। देवगिरि में यादवों के पराभव के बाद एक अंधायुग है, लेकिन बाद में छत्रपति शिवाजी के उदय ने पुरातन परंपराओं और स्थापत्य को एक नया जीवन दिया। कई प्राचीन स्मारक खंडित होने से बचे रहे। पूजा प्रथाएं भी कायम रहीं। कोल्हापुर में छत्रपति शिवाजी के वंशज आज भी हैं। महालक्ष्मी मंदिर के पास भव्य राजबाड़ा उन्हीं का स्थान है। संभाजी राजे शिवाजी की वंश परंपरा में यहां की एक सम्माननीय हस्ती हैं। महालक्ष्मी मंदिर से उनकी पीढ़ियों के संबंध हैं। छत्रपति के रिकॉर्ड में महालक्ष्मी को अंबाबाई देवघर कहा जाता है। 1955 तक प्राचीन मंदिर छत्रपति परिवार के ही मातहत था, अब सरकार के पास है। सामाजिक कार्यकर्ता अमर पाटिल बताते हैं कि अंबाबाई देवघर में राष्ट्रपति और छत्रपति ही हैं, जो सामान्य परिधान में गर्भगृह तक जा सकते हैं।
महालक्ष्मी की यह मूर्ति 2000 साल से ज्यादा पुरानी है
महालक्ष्मी की दो फीट नौ इंच ऊंची मूर्ति 2000 साल से ज्यादा पुरानी बताई जाती है। मूर्ति में महालक्ष्मी की 4 भुजाएं हैं। इनमें महालक्ष्मी मेतलवार, गदा, ढाल आदि शस्त्र हैं। मस्तक पर शिवलिंग, नाग और पीछे शेर है। घर्षण की वजह से नुकसान न हो इसलिए चार साल पहले औरंगाबाद के पुरातत्व विभाग ने मूर्ति पर रासायनिक प्रक्रिया की है। इससे पहले 1955 में भी यह रासायनिक लेप लगाया गया था। महालक्ष्मी की पालकी सोने की है। इसमें 26 किलो सोना लगा है। हर नवरात्रि के उत्सव काल में माता जी की शोभा यात्रा कोल्हापुर शहर मंे निकाली जाती है।
किरणोत्सव की वजह
महालक्ष्मी का मुख पश्चिम में है, मुख्यद्वार 500 फीट दूर है। साल में दो बार उत्तरायण और दक्षिणायन में सूर्यास्त के वक्त सूर्य विशेष स्थिति में आता है, तब किरणें मुख्यद्वार से होती हुई महालक्ष्मी पर पड़ती हंै। 5 मिनट के किरणोत्सव को देखने हजारों लोग जुटते हैं।
Copyright © 2023-24 DB Corp ltd., All Rights Reserved
This website follows the DNPA Code of Ethics.