एक ठोस और उदार लोकतंत्र के लिए पारदर्शिता बहुत ज़रूरी है। इतनी ज़रूरी, जितनी साँस लेना। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है- अच्छे लोकतंत्र के लिए चुनाव प्रक्रिया की स्पष्टता बनाए रखना चाहिए वरना इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे। चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता ही वह चाबी है जिससे किसी भी पार्टी या नेता के लिए सत्ता के दरवाज़े खुल सकते हैं।
मज़बूत से मज़बूत पार्टी को भी पराजय का स्वाद चखना पड़ सकता है, क्योंकि वोट की ताक़त सर्वोच्च है और इसे हमेशा के लिए बनाए रखना हम सबका कर्तव्य है। हम सब यानी, न्यायपालिका, कार्यपालिका और वे सब जो इस चुनाव प्रक्रिया से परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं या जुड़ने वाले हैं।
दरअसल, कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है जिसके अनुसार अब केंद्र सरकार मुख्य चुनाव आयुक्त और बाक़ी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सीधे और अकेले नहीं कर पाएगी। अब प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और भारत के प्रधान न्यायाधीश मिलकर इनकी नियुक्ति करेंगे। इसके साथ ही कोर्ट ने केंद्र सरकार को यह भी कहा है कि चुनाव आयोग का एक अलग सचिवालय बनाने की तैयारी की जाए। जहां तक नियुक्तियों का सवाल है। वह इन तीन लोगों द्वारा ही की जाएगी, जब तक संसद कोई अलग या नया क़ानून नहीं बनाती।
अब तक सत्ता में जो भी रहा हो, राज चाहे जिस पार्टी का भी हो, चुनाव आयोग में नियुक्तियाँ सरकारें अपने चहेतों की ही करती रही हैं। प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं, परोक्ष रूप से समय- समय पर सत्ता में बैठे राजनीतिक दलों को इसका फ़ायदा भी हुआ ही होगा। यहाँ तक कि चुनाव की तारीख़ें और चरण भी सत्ता दल की मर्ज़ी के अनुसार ही तय करने तक के आरोप चुनाव आयोग पर लगते रहे हैं।
एक टीएन शेषन ही थे, जिन्होंने हम हिंदुस्तानियों को बताया था कि चुनाव आयोग नाम की कोई संस्था होती है और वह सरकार के अधीन नहीं, बल्कि स्वतंत्र रूप से काम करती है। न किसी के दबाव में आती, न किसी की सिफ़ारिश को ख़ास तवज्जो देती। उनके पहले और बाद में तो चुनाव आयोग के हाल हम सबने देखे ही हैं। अब सवाल यह उठता है कि चुनाव आयोग की नियुक्तियों में तो पारदर्शिता आ जाएगी, लेकिन राज्यों में क्या होगा?
अब तक तो राज्यों में ज़िला कलेक्टरों को ही रिटर्निंग ऑफ़िसर बना दिया जाता है। कई बार देखा गया है कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के ऐन पहले राज्य सरकारें कलेक्टर्स और पुलिस अधीक्षकों के थोक में तबादले करती हैं। क्यों? निश्चित रूप से ऐसा करने के पीछे सरकारों की मंशा ज़िलों में अपने चहेते अफ़सरों को बैठाने की ही होती होगी!
इस प्रक्रिया पर कब और कितनी पारदर्शिता आएगी, यह तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन इतना तय है कि मुख्य चुनाव आयुक्त निष्पक्ष, निडर और पारदर्शी होंगे तो इसका प्रभाव राज्यों तक भी ज़रूर आएगा। लोकतंत्र की मज़बूती के लिए यह अत्यावश्यक है।
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