तमिलनाडु के राज्यपाल के बाद अब राजस्थान के राज्यपाल चर्चा में हैं। राज्यपाल कलराज मिश्र ने गहलोत सरकार को निशाने पर लेते हुए कहा है कि असेंबली सेशन का सत्रावसान किए बिना सीधे सत्र बुलाने की परिपाटी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए घातक है। इससे विधायकों को तय संख्या में सवाल पूछने के अलावा कोई अवसर नहीं मिल पाता। कुल मिलाकर राज्यपाल का कहना है कि विधायकों के सवालों को सीमित करने की परिपाटी ग़लत है।
अब राज्यपाल महोदय को कौन बताए कि पूरी स्वतंत्रता होने के बावजूद कितने विधायक, आख़िर कितने सवाल पूछते हैं? सवाल पूछने के प्रति वे कितने सजग और उत्सुक होते हैं? फिर सवाल भी कैसे - कैसे? कुछ साल पहले एक तुलनात्मक अध्ययन में यह बात सामने आई थी कि विधानसभा में कई विधायक अपने और अपने परिवार या मित्रों के व्यापार या व्यवसाय से जुड़े ज़्यादातर सवाल पूछते हैं।
फिर कहाँ गई? उनके बारे में कौन सोचेगा?
आख़िर जिन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की चिंता राज्यपाल महोदय जता रहे हैं, उनका तब क्या होगा जब चुनने वाली, वोट देने वाली जनता का अपने प्रतिनिधियों पर विश्वास ही नहीं रह जाएगा? क्योंकि जनता का अपने प्रतिनिधियों में विश्वास बना रहे, ऐसा न तो वे कुछ करते और न ही ऐसा कुछ करते हुए वे दिखाई देते! होना यह चाहिए कि विधायक, सांसद ही नहीं, महापौर, पार्षद, जनपद अध्यक्ष, यहाँ तक कि पंच और सरपंचों को भी जनता का विश्वास जीतने और बनाए रखने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी चाहिए। लोकतंत्र को सम्मान देने का इससे अच्छा कोई तरीक़ा नहीं है।
जनता का विश्वास बना रहेगा तो लोकतंत्र अक्षुण्ण रहेगा और राजनीति में भी धीरे- धीरे शुद्धता आती जाएगी। यह समय देश की हर अच्छी ताक़त को जुड़कर, मिलकर, राजनीति की शुद्धता के लिए संघर्ष करने का है। सही मायने में सफलता का अर्थ यही होता है कि देश और दुनिया में हर जगह, हर मोर्चे पर अच्छी ताक़तों की बहुतायत हो और वे तमाम अच्छी ताक़तें मिलजुल कर किसी काम में लग जाएँ या लगी रहें। जहां तक विधायकों के ज़्यादा से ज़्यादा सवाल पूछने का मामला है, उसमें सुधार तभी आ सकता है जब वे खुद सच्ची भावना से जनता की समस्याओं को हल करने की इच्छाशक्ति रखते हों!
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