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बुंदेलखंड... नाम सामने आते ही आंखों के सामने सूखी फसल, बंजर जमीन और पानी की बूंद के लिए तरसते नंगे बदन, मासूम चेहरे समेत कई तस्वीरें जहन में घूमने लगती हैं, लेकिन जरा ठहरिए यूपी का सबसे गर्म जिला रहने वाले बांदा के जखनी गांव में आकर आपकी यह सोच बदल जाएगी।
लगभग 16 साल पहले जखनी जिले के अन्य गांवों की तरह सूखा, अपराध, भुखमरी और पलायन से जूझ रहा था, लेकिन अब जखनी के जलग्राम मॉडल पर देश के 1050 गांव खुद को बदल रहे हैं। जबकि बासमती चावल की पैदावार में जखनी सहित बांदा अपनी एक नई पहचान बना रहा है। वर्ल्ड वॉटर डे पर पढ़ें रवि श्रीवास्तव की ग्राउंड रिपोर्ट...
नोयडा में ईंट सप्लाई करते थे, अब गांव के सबसे बड़े किसान हैं
बांदा से प्रयागराज रोड पर लगभग 15 किमी चलने के बाद बाएं हाथ पर एक बड़ा सा गेट बना है। जिस पर एक स्कूल का नाम लिखा हुआ है। उस गेट से जखनी गांव की दूरी लगभग 3 किमी है। सड़क के अगल-बगल गेहूं की लहलहाती फसल लगी हुई है। बुंदेलखंड के किसी इलाके में इतनी हरियाली सपने जैसी ही दिखती है। सड़क किनारे बने खेतों में एक नाली भी बनी हुई है। जिसमें कहीं पानी है तो कहीं सूखी है। कुछ दूर चलने पर एक खेत में एक कमरे का पक्का मकान बना हुआ है। जहां हमें मामून अली मिलते हैं। बातचीत में पता चला कि मामून गांव के सबसे बड़े किसान हैं। उन्होंने बताया कि जहां तक आप देख रहे वह सब हमारी जमीन है।
एक जुझारू किसान मामून बताते हैं कि स्कूल की पढ़ाई पूरी की तो सामने रोजगार का संकट था। जमीन तो थी, लेकिन अनाज की पैदावार नहीं थी। पानी की कमी के चलते बीज बोते तो इतना अनाज भी नहीं होता था कि साल भर घर का राशन चल सके। इसलिए मैं अपने मामा के पास नोएडा चला गया। वहां लगभग 5 साल ईंट सप्लाई का काम किया। अच्छा व्यवसाय चल रहा था, बीच-बीच में गांव आना होता रहता था।
उसी बीच गांव के कुछ लोगों ने मीटिंग की कि जो लोग पलायन कर गए हैं, वे वापस लौटें और गांव में पानी के हालात सुधारने की कोशिश की जाए। हम लौटे और साथियों के साथ मिलकर हमने 'खेत पर मेड़, मेड़ पर पेड़' के विचार पर काम किया। आज हाल यह है कि हम सबसे ज्यादा बासमती धान उगाते हैं। जो कमाई हजारों में थी, वह लाखों में पहुंच चुकी है। हमें देखकर भी कई लोग गांव लौटे। जिनके पास खेत नहीं थे, वे बटाई पर लेकर खेती करने लगे। अब लगभग गांव का हर व्यक्ति खुश है। इस बार हमने काला गेहूं उगाया है। जिसकी फसल अच्छी हुई है। इसका भी हमें बेहतर दाम मिलेगा।
30 कुएं, 25 हैंडपंप और 6 तालाब से घिरा है जखनी गांव
जखनी गांव की तरफ बढ़ते हुए हमें कई कुएं मिले। जहां लोग पानी भरते दिखाई पड़े। जखनी गांव का कॉन्सेप्ट है- जैसा भी पानी हो, उसे स्टोर कर लो। कुएं के बगल से ही एक नाला बनाया गया है। हालांकि वह अभी लगभग सूखा ही है, लेकिन जो पानी बाल्टी से निकलता है, वह उसी नाले में जा रहा है। जखनी में 2625 लोगों की आबादी है। 2472 बीघे यानी लगभग 400 हेक्टेयर की खेती वाले गांव में 30 कुएं, 25 हैंडपंप और 6 तालाब हैं। गांव के ही समाजसेवी उमाशंकर पांडेय कहते हैं- यह कोई नया तरीका नहीं है। ऐसा हमारे पूर्वज करते रहे हैं, लेकिन जब देश में चकबंदी लागू हुई तो मेड़ काट दी गईं और अभी तक चकबंदी पूरी नहीं हो पाई और मेड़ भी नहीं बन पाई। यही वजह है कि जब खेतों में पानी नहीं रुकता तो वह बंजर हो जाता है। गांव के हालात सुधारने और जल संरक्षण के लिए उमाशंकर पांडेय ने 2005 में मामून अली जैसे लोगों को अपने साथ जोड़कर जलग्राम अभियान शुरू किया।
बासमती उत्पादन में रिकॉर्ड कायम किया, अब दिल्ली-हरियाणा की मंडी में बेचेंगे
जखनी गांव में ही हमें अशोक अवस्थी मिलते हैं। अशोक भी हताश-निराश होकर सूरत चले गए थे, लेकिन जब लौटे तो कुछ कर गुजरने के हौसले से भरे हुए थे। जिस खेत में आसानी से एक फसल नहीं होती थी। उन खेतों में उन्होंने साल में दो फसल उगाईं। अवस्थी कहते हैं कि जब पानी की स्थिति गांव में सुधरने लगी तो हम लोगों ने कुछ अलग करने की भी सोची। बांदा का जो मौसम है, वह धान की पैदावार के लायक ही है। 2008 में अवस्थी समेत गांव के 10 लोगों ने बासमती का बीज कानपुर और गनीवा कृषि फार्म से लिया। पहले साल 100 क्विंटल की पैदावार हुई।
इस बार जखनी में 20 हजार क्विंटल बासमती धान पैदा हुआ है। जबकि 5 हजार क्विंटल मोटा धान हुआ है। कुल मिलाकर पूरे गांव के लोगों ने 4 से 5 करोड़ में धान की बिक्री की है। अब जखनी गांव पूरे बुंदेलखंड में बासमती धान की पैदावार के लिए जाना जाता है। उमाशंकर पांडेय कहते हैं कि हमारे बासमती धान की खरीद सरकार नहीं करती है। आसपास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि जिससे धान को चावल में बदला जा सके। हमें इसे 40 से 50 किमी दूर ले जाना पड़ता है तो कहीं कुछ व्यापारी खेतों तक भी आ जाते हैं। अब हमने एक फार्मर्स एग्रो प्रोडक्शन कंपनी बनाई है। जो किसानों का बासमती धान खरीदेगी और उसे दिल्ली और हरियाणा की मंडी में बेचेगी। यही नहीं, अभी हाल ही में एक दुग्ध सहकारी समिति भी बनाई है, जिसका काम अब जल्द ही शुरू होने वाला है।
क्या है जलग्राम की संकल्पना?
2005 में 15 लोगों को लेकर जलग्राम के अभियान की शुरुआत करने वाले उमाशंकर पांडेय बताते हैं कि हम हर पानी की बूंद बचाने की कोशिश करते हैं। हमने खेतों में मेड़ बनाई, फिर मेड़ पर पेड़ लगाए। जैसे खेतों में धान लगा है तो मेड़ पर सहजन, करौंदा, नीम और अन्य औषधीय गुणों वाले पेड़ों को लगाया। जिसकी पत्तियां भी खेतों में गिरकर जैविक खाद बन जाती हैं। साथ ही खेत के चारों तरफ नाली बनाई ताकि बरसात का पानी उसमें रुका रहे और खेतों में नमी बनी रहे। उमाशंकर कहते हैं कि बुजुर्ग कहते थे कि बरसात के पहले पानी में नहाना नहीं चाहिए बल्कि उसे संरक्षित करना चाहिए। यही हमने किया। हमने घर, खेत, तालाब और कुएं में पानी संरक्षित करना शुरू किया। खेतों में पानी रोकने के लिए मेड़ बनाई, घरों का पानी स्टोर करने के लिए नालियां बनाई और उसे बड़े नालों से जोड़ा। बाकी बरसात का पानी कुएं और तालाब में भी जमा होता रहा, जिससे जल स्तर बढ़ गया। पहले जहां 100-200 फीट पर पानी नहीं मिलता था। वहीं अब 7 से 10 फीट पर पानी मिलता है।
गांव की महिलाएं भी बन रही हैं आत्मनिर्भर
हमारी मुलाकात गांव में राजाभैया वर्मा से हुई। वह भी 15 साल पहले गांव से रोजगार के चलते पलायन कर गए थे। बिजली का काम करने वाले राजा के पास एक बीघा खेती है। साथ ही उन्होंने बटाई पर भी खेत लिया हुआ है। यही नहीं उनकी पत्नी स्वयं सहायता समूह से जुड़ी हैं। घर में तीन बेटियां हैं और दो बेटे हैं। सभी पढ़ने जाते हैं। राजाभैया को सरकारी योजना के तहत कताई मशीन भी मिली हुई है। कताई मशीन पर बैठे राजाभैया बताते हैं कि पहले कभी-कभी भूखे पेट भी सोना पड़ा, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। अब कभी भूखे पेट नहीं सोना पड़ता है। 200 रुपए रोज की कमाई मशीन से होती है, जबकि बिजली और खेती के काम से भी घर बेहतर ढंग से चल रहा है। राजाभैया के घर में स्वयं सहायता समूह से जुड़ी महिलाओं की मीटिंग चल रही है। मीटिंग में आई बुजुर्ग शांति कहती हैं कि पहले एक-दो किमी दूर पीने का पानी लेने जाना होता था, लेकिन अब स्थिति बदल गई है। आसपास के जिलों से ज्यादा पानी हमारे यहां है। वहीं राजाभैया की पत्नी पुष्पा कहती हैं हमने भी अपने खेतों पर मेड़ और मेड़ पर पेड़ की संकल्पना को लागू किया है अब अच्छी पैदावार होती है। आर्थिक स्थिति भी पहले से बहुत बेहतर है।
सूखाग्रस्त इलाकों की लिस्ट से निकल गया है जखनी गांव
लगभग 70 वर्षीय किसान अली मोहम्मद पुरानी यादों को याद कर बताते हैं कि 1978-79 में जबरदस्त सूखा पड़ा था। तालाब और कुएं सूख गए थे। तब पानी के लिए बहुत जद्दोजहद करनी पड़ी थी। अली मोहम्मद भी उमाशंकर पांडेय की उसी टीम का हिस्सा हैं जिसने जलग्राम अभियान चलाया। उमाशंकर कहते हैं कि 2005 में जब हमने इस संकल्पना को साकार करने का सोचा तो कोई भी खेतों में नाली बनाने को तैयार नहीं था। फिर हम 10-15 लोग मिले और अपने खेतों से शुरुआत की। हमने अपने खेतों की मेड़ बनाई और चारों तरफ नाली बनवाई। जब हमारे खेतों में फसल की पैदावार बढ़िया हुई तो देखा-देखी लोग सामने आने लगे। हमने उनकी मदद की। एक बीघा खेत में 5 हजार और एक एकड़ में 15 हजार का खर्च आता है।
जखनी का परवल पूरे बुंदेलखंड में मशहूर, प्याज और धनिया भी खूब होता है
गांव के अंदर पक्के रास्तों से होकर गांव के बाहर खेतों के बीच बने बड़े तालाब का रास्ता है। सड़क किनारे बनी नाली जिसमें घर का वेस्ट पानी आता है उसे रास्ते में एक पाइप डालकर सोमवती ने अपने छोटे से सब्जी के खेतों की तरफ मोड़ दिया है। जिससे उनके खेतों की सिंचाई होती है। खुद अभी धनिया साफ कर रही हैं। कहती हैं दो-चार पसेरी निकल आएगा तो बाजार में बिक जाएगा। उन्होंने बताया कि पानी नहीं बचाया तो पानी की किल्लत हर जगह झेलनी होगी। उमाशंकर पांडेय बताते हैं कि जखनी में सब्जियां भी खूब होती हैं। जखनी का परवल बुंदेलखंड में मशहूर है।
सरकारी मदद से नहीं, खुद से मिसाल स्थापित की
सितंबर 2020 में पीएम नरेंद्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में जखनी का उल्लेख किया। फिर नीति आयोग ने भी जखनी मॉडल की तारीफ की, लेकिन इन सबके पीछे कोई सरकारी प्रयास नहीं था। हमने जखनी की सिद्धि, समृद्धि और प्रसिद्धि के लिए राज्य, सरकार और समाज को जोड़ा, लेकिन सरकार से मदद नहीं ली। 2005 में जखनी गांव से ही मनरेगा मजदूरों के खातों में पैसा आना शुरू हुआ। हमने एक बात का ध्यान रखा कि तालाब के किनारों को पक्का नहीं किया। जिससे तालाब में संरक्षित पानी एक जगह से दूसरी जगह जा सके। बुंदेलखंड के लिए हमेशा ही सरकारों के बजट में बड़े-बड़े पैकेज की व्यवस्था होती है। इस बार भी पैकेज की घोषणा हुई है, लेकिन हमने कभी सरकार और प्रशासन से पैसों की मांग नहीं की। हमारी यही ताकत है। 2017 में ही हमने आदर्श जलग्राम स्वराज अभियान समिति की स्थापना की। इसमें 15 लोगों को जोड़ा। अब हम खुद ही पैसा इकट्ठा करते हैं और जहां जरूरत होती है उसे खर्च करते हैं।
बड़ी परेशानियां झेलनी पड़ी जलग्राम योजना को लागू करने में
उमाशंकर पांडेय गांव भर के लिए जलयोद्धा बनकर उभरे हैं। उन्होंने अपना घर भी जलग्राम समिति के लिए दे रखा है। उमाशंकर बताते हैं कि 1975 के आसपास उनका एक पैर एक्सीडेंट में खराब हो गया था। जिससे उनमें हीनभावना आ गई थी। रिश्तेदार भी ताने मारते थे। तब मां ने मुझे प्रेरित किया। मैं बाहर निकल गया और घूमता रहा। 2001 में मां की तबीयत खराब थी, तब उसने कहा अपने लिए सब करते हैं कुछ गांव के लिए करो। तब से मैं जखनी के लिए कुछ करने की सोचने लगा। मुझे जब 2005 में साथी मिले तो मैंने जलग्राम की संकल्पना की शुरुआत की। इस दौरान कुछ लोगों ने इससे आक्रोशित होकर मेरा घर भी जला दिया। पहनने को कपड़े भी नहीं बचे थे, लेकिन मैं रुका नहीं। आखिरकार आज जखनी की देश भर में चर्चा है।
पानी के साथ हर स्तर पर बढ़ा गांव
उमाशंकर बताते हैं कि गांव में अब प्राइमरी स्कूल के साथ जूनियर हाईस्कूल और इंटरमीडिएट स्कूल भी है। जहां गांव के 500 से ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं। जखनी गांव से संबंधित पुलिस चौकी में पिछले पांच साल में कोई बड़ा अपराध दर्ज नहीं हुआ है। पहले गांव में सूदखोरों का जाल था, लेकिन अब किसान सूदखोरों के पास नहीं बल्कि बैंक के पास जा रहे हैं। वहीं किसानों के लिए जो जानवर सबसे बड़ी चुनौती थी, उससे निपटने के लिए किसानों ने एक सामूहिक स्थल को चुना और वहां पानी-चारे की व्यवस्था कर जानवरों को एक बाड़े में रखा गया है। जिसकी गांव के लोग मिलकर देखभाल करते हैं।
अपने गांव को हम कैसे जखनी बना सकते हैं?
उमाशंकर पांडेय कहते हैं कि इसके लिए खुद से शुरुआत करनी होगी। हम सरकार और समाज के भरोसे नहीं रह सकते। अगर किसी के पास एक बीघा जमीन है तो 5 हजार खर्च कर उसमें मेड़बंदी और चारों तरफ नाली बनवाई जाए और खेत को तारों की बाड़ों से सुरक्षित किया जाए। बरसात का पानी उसमें रोका जाए। मेड़ पर औषधीय पेड़ लगाए जाएं। अगर खेत की मिट्टी बह कर बाहर नहीं जाएगी तो आपको बेहतर फसल मिलेगी। खेत में लगातार पानी रहने से नमी बनी रहती है। ऐसे में आप साल में दो फसल आराम से निकाल सकते हैं। कुएं और तालाब जाहिर है कि सामूहिक प्रयास से ही लबालब होंगे। ऐसे में जब आप सफल होंगे, तो लोग आपके साथ जुड़ेंगे और देखते ही देखते कुछ सालों में अपने साथ-साथ गांव की भी तस्वीर बदल सकते हैं।
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