दिल्ली में शक्तिशाली सरकार के होते हुए कश्मीरी पंडितों की पीड़ा का पारोवार नहीं है। बुरे हाल हैं। पिछले पूरे साल में घाटी में 15 टारगेट किलिंग हुई थीं। इस बार अभी सात महीने ही बीते हैं और 24 गैर मुस्लिम मारे जा चुके।
पिछले अक्टूबर से कश्मीरी पंडितों की हत्या का जो सिलसिला शुरू हुआ था, थमता नजर नहीं आ रहा। जो बच गए हैं उनका कहना है कि हम अपने माता-पिता, बच्चों को खोना नहीं चाहते। प्रशासन सुनता नहीं है। पुलिस मानती नहीं है। घर छोड़ा भी नहीं जाता और मरने के डर से यहां रहा भी नहीं जाता। क्या करें?
मोह और वैराग्य दोनों विपरीत दिशा में खींचते हैं। अपना अस्तित्व-एक ही समय में चाहा और अनचाहा लगने लगता है। सरकार और प्रशासन क्या कर रहा है? सुरक्षा आप देते नहीं। सुरक्षित वातावरण आपने बनाया नहीं। फिर उप राज्यपाल और इतना बड़ा फौज-फाटा कर क्या रहा है?
कश्मीरी पंडितों के कभी न खत्म होने वाले दुखों और उनकी कहानियों पर फिल्में बनाकर, उन फिल्मों के अति प्रचार में शामिल होकर सहानुभूति और भावनात्मक समर्थन तो आप चाहते हैं, लेकिन हकीकत में उनका भला कितना किया?
कई बार तो यह भी देखा गया कि बड़े अफसरों के रिटायरमेंट के वक्त भी ऐसी घटनाएं बढ़ जाती हैं। तो केवल एक्सटेंशन पाने के लिए नौकरशाही सुरक्षा में लापरवाही तो नहीं करती, इस तरह के कुछ संकेत भी कश्मीर में पीड़ा भुगत रहे लोगों की तरफ से मिलते रहते हैं। सच क्या है, कोई नहीं जानता।
धारा 370 हटी तो देश को अच्छा लगा था। … कि वर्षों में जो संभव नहीं हो सका, वह हो रहा है। सबसे ज्यादा इस कदम से कश्मीरी पंडित खुश हुए थे जिन्होंने इस धारा, इस अनुच्छेद के कारण पीड़ाएं भोगी थीं लेकिन, उनके कष्ट हैं कि कम ही नहीं होते। घाव हैं कि भरते ही नहीं।
पुलिस, सेना सब कुछ तैनात है, लेकिन आतंकियों पर बस किसी का नहीं चलता! आते हैं, नाम पूछते हैं, … और गोली मार देते हैं। पीछे रह जाते हैं आंसू, चीत्कार और विलाप! आखिर यह कब तक होता रहेगा? कोई तो जवाबदेह हो! कोई तो निराकरण की तरफ कदम बढ़ाए!
आज भी कश्मीरी पंडितों के आस-पास और इर्द-गिर्द इतनी खलबली और इतनी घबराहट है, लेकिन प्रशासन और स्थानीय सुरक्षा तंत्र को इसकी भनक ही नहीं लगती। वे तब जागते हैं जब किसी को गोली मार दी जाती है या कोई मारा जाता है। फिर चौकस बंदोबस्त किए जाते हैं। घरों के आगे सुरक्षाकर्मी बैठ जाते हैं।
तो क्या लोग अपने खेतों में न जाएं? अपना काम-काज छोड़ दें? लोगों की सांसें घुटने लगी हैं। खीझ उठे हैं। और इस वजह से जुबान पर तल्खी आ गई है। तल्ख होते ही प्रशासन बुरा मान बैठता है। शिकायतें सुनी नहीं जातीं या ध्यान ही नहीं दिया जाता और हत्याएं होती जाती हैं। संख्या पर संख्या जुड़ती जाती है। क्या यह कभी न खत्म होने वाली कहानी है?
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