पहाड़ दरक रहे हैं। सरकार वादों से सरक रही है। जोशीमठ के बाद अब मसूरी, चंबा और कर्ण प्रयाग में भी लोगों के घरों में दरारें आ रही हैं। सरकार की चुस्ती देखिए कि एक सरकारी विशेषज्ञ जोशीमठ के लोगों को आकर कहता है कि कुछ नहीं होगा। आपके घर सुरक्षित हैं। दूसरे दिन दूसरा विशेषज्ञ आता है और घंटेभर में मकान ख़ाली करने को कहता है।
अपने घरों से निकालकर लोगों को जिन होटलों में तात्कालिक रूप से ठहराया जाता है, उनमें उनके घरों से बड़ी दरारें मिलती हैं। थके- माँदे, हारे लोगों का कहना है कि इन दरारों भरी होटलों का क्या भरोसा कि कब दरक जाएँ। मरना ही है तो अपने घरों में मरेंगे। ये एहसान भी क्यों कर रही है सरकार? अफ़सरों, विशेषज्ञों और सरकार के पास इन प्रश्नों का कोई जवाब नहीं है।
ऊपर से मुख्यमंत्री जोशीमठ पहुँचकर अपना घर छोड़ने पर मजबूर लोगों को कह रहे हैं कि बहुत हुआ, अभी डेढ़ लाख रुपए ले लो, बाक़ी सेटलमेंट बाद में करेंगे। पीड़ित लोगों के साथ भावनात्मक मज़ाक़ किया जा रहा है। कर्णप्रयाग से बद्रीनाथ धाम जाने तक का पूरा रास्ता दरक रहा है और सरकार चैन से बैठी है। सालों से यहाँ के लोग शिकायतें करते आ रहे हैं लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं था। अब आपदा घरों तक आ पहुँची है तो आनन- फ़ानन शॉर्टकट तलाशे जा रहे हैं।
आफत इस तरह पसरी है कि लोग अपने घर छोड़कर जिन होटलों या होम स्टे में शरण लिए हुए हैं, वहाँ एक-एक कमरे में तीन-तीन परिवार रहने को मजबूर हैं। बस, जैसे-तैसे रात गुज़ारते हैं। सुबह होते ही अपने-अपने घरों के बरामदों में आ जाते हैं। भीतर जा नहीं सकते क्योंकि वहाँ ख़तरा है। अपने ही आँगन के पहलू में बैठ कर बिलखते हैं। कोई उनके आंसू पोंछने वाला नहीं है। सरकार तो जले पर नमक छिडकने में माहिर होती है, सो वो वही कर रही है।
कुछ लोगों के आंसू सूख चुके हैं। उनकी आँखों में आंसुओं की जगह ग़ुस्सा उतर आया है। वे अपने घरों के आगे या तहसील ऑफिस में धरना दिए बैठे हैं। इन लोगों को कहना है कि उनकी समस्याओं का निराकरण नहीं होता तब तक वे अपना घर नहीं छोडेंगे। इनके विरोध के कारण सरकार जिन ख़तरनाक भवनों को गिराना चाहती है, वह भी नहीं कर पा रही है। लोगों के घरों में हफ्तेभर से चूल्हे नहीं जल पाए हैं।
बच्चों का स्कूल जान बंद हो गया है। दो वक्त का भोजन भी पड़ोसियों के भरोसे चल रहा है। सरकार सब कुछ तत्काल ख़ाली कराना चाहती है। लोगों का कहना है कि मुआवज़ा तय हुए बिना वे अपना मकान या संपत्ति आख़िर किसके कहने पर छोड़ सकते हैं? सरकार तो आज कुछ कह रही है, कल कुछ और कह देगी! उसका क्या भरोसा?
आख़िर कोई तो कुछ लिख कर दे! आफ़त के वक्त अलकनंदा के किनारे बने सेना के बैरक मददगार साबित होते हैं लेकिन इस वक्त तो उन बैरकों में भी दरारें आई पड़ी हैं। जाएँ तो कहाँ जाएँ?
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