प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिमाचल ड्रेस पहनकर उत्तराखंड पहुँचे। केदारनाथ और बद्रीनाथ के दर्शन करने के बाद माना गाँव में हुई सभा में जो बात उन्होंने कही, वह काबिले तारीफ़ है। देशभर के भले की है और लोकल के महत्व को दर्शाती है। उभारती है। मोदी ने कहा- हर भारतीय को संकल्प लेना चाहिए कि देश में जब भी वह किसी यात्रा पर जाए, कुल यात्रा खर्ज का कम से कम पाँच प्रतिशत स्थानीय चीजों की ख़रीद पर ज़रूर लगाए।
दरअसल, लोकल का महत्व हर जगह, हर क्षेत्र में होता है। भाषा को ही लीजिए। भाषा चाहे जो भी हो, स्थानीय बोलियाँ उसमें रस भरती हैं। उसे सुंदर और कर्णप्रिय बनाती हैं। वैसे कोई भी भाषा आस पास की बोलियों से ही संपन्न भी होती हैं और विस्तार भी पाती हैं। निमाडी, मालवी हो या मारवाड़ी, ढूँढाड़ी और मेवाड़ी, इन बोलियों ने हिंदी को बहुत कुछ दिया है और हिंदी ने इन बोलियों के कई शब्दों, मुहावरों, कहावतों को सम्मान के साथ स्वीकारा और अपने में मिलाया भी है।
इसी तरह लोकगीतों को ले लीजिए। कई लोकगीत हैं जिन्होंने हिंदी से बढ़कर प्रशंसा भी पाई और पॉपुलर भी हुए। राजस्थान की माण्ड गायकी ने तो हिंदुस्तानी कंठ संगीत को भी बहुत कुछ दिया है। माण्ड सुनकर कोई उसकी शास्त्रीयता पर सवाल नहीं उठा सकता। इसीलिए प्रधानमंत्री ने स्थानीय चीजों, उनकी बनावट शैली पर ज़ोर दिया ताकि ये बाज़ार के अभाव में मर न जाएँ। लुप्त न हो जाएँ। हिंदुस्तान में हर दूरस्थ इलाक़े की अपनी कोई शैली होती है। सामान बनाने की, खिलौनों की और भी जो रोज़ काम आने वाली चीजें हैं, उन सबकी। अगर यात्रा पर जाने वाले विभिन्न राज्यों, स्थानों के लोग इन्हें नहीं ख़रीदेंगे तो वहाँ के स्थानीय कलाकार क्या खाएँगे? वहाँ की अर्थ व्यवस्था कैसे चलेगी? कैसे क्षेत्र का और उस क्षेत्र के लोगों का विकास होगा?
प्रधानमंत्री की चिंता यह है कि स्थानीय हुनर की कद्र नहीं होगी तो लोग डरकर पलायन करने लगेंगे और आज नहीं तो कल या कभी न कभी वह हुनर लुप्त प्रायः हो जाएगा।
यह चिंता निश्चित तौर पर देश के लोगों में भी आएगी और स्थानीय चीजों, स्थानीय हुनर और कला का सम्मान हर हाल में होगा, ऐसी अपेक्षा तो की ही जा सकती है। कोई बड़ा खर्च नहीं है। केवल कुल खर्च का पाँच प्रतिशत अगर वहाँ की स्थानीय चीजों को खर्च करने में लगा दें तो दूरस्थ इलाक़ों की अर्थ व्यवस्था में यह सबसे बड़ा योगदान होगा।
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