राजनीतिक पार्टियाँ और उनके नेता अच्छी तरह जानते हैं लोगों को बरगलाना। वे झूठ को सच बनाकर बेच भी सकते हैं, क्योंकि उनका प्रोफ़ेशन ही यही है। आम जनता समझ ही नहीं पाती। पहले ग़रीबी, महंगाई, बेरोज़गारी, किसानों की फसलों का सही मूल्य, ये सब मुद्दे चुनावों के दौरान उठाए भी जाते थे और इन मुद्दों पर ही सरकारें बनती और गिरती भी थीं।
याद ही होगा कि प्याज़ की क़ीमत पर एक बार कितना हंगामा हुआ था! लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ियों ने इन असल मुद्दों को ग़ायब कर दिया है। चुनाव मैदान से भी और लोगों के मन से भी।
भ्रष्टाचार तो चुनाव के पहले और बाद में अब कोई मुद्दा ही नहीं रह गया। क्यों? क्योंकि अब कोई विपक्षी पार्टी सड़क पर उतरकर आंदोलन करना ही नहीं चाहती। छोटा- मोटा कुछ करती भी हैं तो सिर्फ़ फ़ोटो खिंचाने और वीडियो वायरल करने भर के लिए। दरअसल, मैदानी लोग अब वॉट्सएप और फ़ेसबुक या कहें सोश्यल मीडिया के गुलाम हो गए हैं।
यह ग़ुलामी पार्टियों, नेताओं, कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि आम जनता में भी अच्छी तरह रच- बस गई है। चुनाव प्रचार, भाषण, यहाँ तक कि रिश्ते - नाते भी अब तो फेसबुकिए हो गए हैं। भावनात्मक रिश्तों को तिलांजलि दे दी गई है। किसी को पता भी नहीं चला।
चूँकि आम जनता, असल वोटर, को ही असल मुद्दों की पड़ी नहीं है तो पार्टियाँ तो कब से यही चाह रहीं थीं। पेट्रोल, डीज़ल की क़ीमत आटे - दाल का भाव अब किसी को पता ही नहीं है। ख़रीदा जाता है और भाव पूछे बिना पैकेट पर लिखी हुई क़ीमत ऑनलाइन अदा कर दी जाती है। ये ऑनलाइन पैसा जब से ट्रांसफ़र होने लगा, लोगों को महंगाई का एहसास होना ही बंद हो गया है। उन्हें पता ही नहीं है कि आख़िर भाव या क़ीमत किस हद तक बढ़ गई है।
वे तो थोक में ऑनलाइन पेमेंट करते हैं और चलते बनते हैं। कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता! आप प्रैक्टिकल कर लीजिए - आप दस किलो आटा लाइए और ऑनलाइन पेमेंट करिए, किलो का भाव न तो आपको पता है, न आप पूछना चाहते। इसी तरह कार में पेट्रोल या डीज़ल भरवाइए। तीन या चार हज़ार रुपए पे कर दीजिए। लीटर का भाव आप देखते ही नहीं हैं। यही वजह है कि चतुर- चालाक नेताओं ने असल मुद्दों को ग़ायब कर दिया है।
जब जनता को ही फ़र्क़ नहीं पड़ता तो महंगाई मुद्दा कैसे बनेगी? जब युवाओं को ही नौकरी का संघर्ष पता नहीं है तो बेरोज़गारी ज्वलंत मुद्दा कैसे बन सकता है? भ्रष्टाचार तो जैसे हर जगह इस तरह घुल- मिल गया है जैसे इससे किसी को कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता। वजह साफ़ है- अब हर कोई जल्दी में रहता है। काम होना चाहिए। कैसे हुआ? क्या- क्या करना पड़ा? इस बारे में कोई सोचना- विचारना ही नहीं चाहता।
इसलिए चुनावों में अब मुद्दे नहीं, केवल जात- पात की बात होती है। जातीय गणित ठीक है तो प्रत्याशी जीत जाता है, वर्ना हार जाता है।
Copyright © 2022-23 DB Corp ltd., All Rights Reserved
This website follows the DNPA Code of Ethics.