पहले ऊबाऊ और फीके दिन के बाद व्यस्ततम और साहित्य की नदी में गहरा गोता लगाता दूसरा दिन। सुबह के 11 बजे। जयपुर लिट फेस्ट का फ्रंट लॉन। मंच पर हैं जावेद अख्तर, शबाना आजमी और इनसे बात करतीं रक्षंदा जलील। रोमांटिक अंदाज की बात चली तो शबाना ने तंज कसा- लोग मुझसे मिलते हैं और कहते हैं कि इतने रोमांटिक गीत लिखने वाला आपका जीवन साथी है। आपका तो जीवन ही सफल हो गया। मैंने कहा- रोमांटिक नाम की किसी चीज का एक कण भी नहीं है इस आदमी में।
इस तंज पर साहित्यिक लहजे में जावेद तमतमा उठे। जवाब दिया- भाई, जो लोग सर्कस में झूले पर काम करते हैं, वो घर में दिनभर उल्टे लटके रहते हैं क्या? जोरदार ठहाके के बाद बात आगे बढ़ी। दरअसल ये सेशन जांनिसार अख्तर और कैफी आजमी की शायरी पर था। जांनिसार साहब मतलब शबाना के ससुर और कैफी साहब यानी जावेद अख्तर के ससुर। कुल मिलाकर शायरी के ससुरों पर सेशन था। नीचे, सामने श्रोता बनकर बैठे थे गुलजार।
शबाना ने कुछ उदाहरण देकर कहा- जो अंतर जावेद और गुलजार साहब में है, वही जांनिसार अख्तर और कैफी आजमी में था। शबाना ने कहा- जांनिसार अख्तर साहब को आप पढ़ते हैं तो लगता है पास ही बैठे हों। इसके उलट जावेद साहब ने कैफी साहब को बागी बता दिया। खुद फैज ने कहा है: कैफी साहब शायरी के बागी सिपाही हैं।
कैफी साहब शायरी के एंग्री यंगमैन
हालांकि जावेद अख्तर ने यह भी कहा कि कैफी आजमी की गजलें अगर गजलें नहीं होतीं तो प्रतिमाएं होतीं। कुल मिलाकर जावेद ने कैफी साहब को शायरी का एंग्री यंगमैन बताया। एंग्री यंगमैन शब्द आते ही जावेद से पूछा गया कि आपके डॉयलॉग्स ने अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन बना दिया। जावेद ने कहा- अमिताभ बनाए नहीं जाते, पैदा होते हैं।
इसके बाद बात चली ट्रांसलेशन की। गजल के ट्रांसलेशन पर चौंकाने वाली बात सामने आई। ट्रांसलेशन कमजोर ही होता है। शबाना ने कहा- दरअसल, ट्रांसलेशन किसी परफ्यूम को एक शीशी से दूसरी शीशी में डालने की तरह है। इससे तो सुगंध उड़ ही जाती है! जावेद ने कहा- तमाम टाइगर्स जानवर होते हैं, लेकिन सारे जानवर टाइगर्स नहीं हो सकते।
गुलजार साहब की इमोशनल नज्म
खैर, जावेद के तुरंत बाद गुलजार साहब का सेशन था। मौका था उनकी एडिटिंग वाली किताब के इनॉगरेशन का। कुछ उस किताब से और कुछ उनकी नज्में सुनने को मिलीं। जैसे - शायर के बारे में कहा- ‘घंटों रात को बैठा हुआ वो अगली रात का इंतजार करता है’। जैसे- ‘कोर्स की किताबें अच्छी नहीं लगतीं, क्योंकि उनमें दर्द नहीं होता।’ फिर इमोशनल नज्म कही-
मैं नज्में ओढ़ कर बैठा हुआ हूं, बिना नज्मों के मैं नंगा हूं अंदर से, बहुत सी चोटें अंदर छिपा रखी हैं, मुझे जब चोट लगती है,नई नज्म ओढ़कर छिपा लेता हूं। नज्म और भी हैं- दिन तो टोकरी है मदारी की और रात उसका ढक्कन, मदारी मुझको खुदा लगा, जब मैं छोटा था तब, खुदा अब मदारी लगता है, जब बड़ा होकर देखता हूं उसके करतब। और अंत में … पुरानी नज्म से एक महक आती है मुझको उन रजाइयों की, जो सुखाई जाती हैं गर्मियों में…।
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