भारतीय राजनीति कौन सी करवट लेने जा रही है। जन कल्याण और ग़रीबों के भले का उद्देश्य तिरोहित होता जा रहा है। पक्ष हो या विपक्ष, हर कोई अब एक- दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप करना ही अपनी राजनीति का एकमात्र उद्देश्य मान बैठा है। कभी - कभी सोचने में आता है कि क्या यह राजनीतिक संसार सिमटकर चावल के दो दाने हो सकता है, जिसे किसी अज्ञात देवता की पूजा में सादर रखा जा सके? …कि क्या यह राजनीतिक संसार कुछ देर के लिए ही सही, गोल होकर एक रोटी हो सकता है, जिसे कई दिनों से भूखी किसी बच्ची को चुपके से दिया जा सके?
नेताओं और आम आदमी के बीच के संबंध तो बुरे हाल में हैं। कई नेता हैं जिन्हें लोगों ने अपनी पलकों में बैठाए रखा लेकिन वही नेता, उन्हीं नज़रों से गिरकर ख़ुदकुशी करने से नहीं चूके! नज़रें घुमाकर देखिए तो घरों में, दफ़्तरों में और रास्तों पर जाने कितने श्मशान क़ायम हैं, जिनसे होकर आम आदमी को रोज़ गुजरना पड़ता है।
चलते- फिरते मक़बरों की ज़ियारत रोज़ करनी पड़ रही है। ये हालात बदलने चाहिए। राजनीति को सबके लिए सुलभ और सरल, सामान्य होना ही चाहिए। वैसे ही जैसे- दरिया के पानी पर गिरती हुई सुबह की नाज़ुक धूप। जैसे- ख़ामोश दुपहरी में काली चट्टान पर बैठा सफ़ेद परिंदा। जैसे- गोधूली बेला में पानी पीती गायों की गर्दन पर लटकती- बजती घन्टियां!
आज तो आम आदमी राजनीति से तौबा करता फिरता है और नेताओं से ख़ौफ़ खाता है। नेताओं और आम आदमी के रिश्तों पर एक दन्तकथा बड़ी मौजू है जो कुछ इस तरह है - एक बार एक आदमी, एक नेता के पास गया। कहा- मुझे चूहा बनकर नहीं रहना, मुझे आपकी बिल्लियाँ बहुत डराती हैं। नेता ने कहा- जा बेटा तू बिल्ला बन जा। वो बन गया बिल्ला। … और फिर उसे कुत्तों से डर लगने लगा। नेता जी ने समाधान सुझाया- जा बेटा अब शिकारी कुत्ता बन जा। वो भी बन गया लेकिन अब शेर का ख़ौफ़ सताने लगा। नेता जी के पास फण्डों की कमी नहीं थी। फिर कहा- जा अब शेर बन जा। अब शेर बनकर जीवनभर डर लगता है कि नेताजी कहीं वापस चूहा न बना दें!
कुल मिलाकर, जिन नेताओं को लोगों का प्रेम कमाना था, वे लोगों की नफ़रत कमाए बैठे हैं। पाँच साल में एक बार घर या मोहल्ले में आते हैं। वोट माँगने। सिवाय इसके उनका लोगों से कोई वास्ता नहीं होता। ऐसी धारणा बनी हुई है। हो सकता है कुछ नेता अपवाद भी हों और वाक़ई लोगों के हितैषी बने हुए हों लेकिन आम धारणा तो इस राजनीति, इस नेतागीरी के खिलाफ ही है।
राजनीति से टूटे हुए विश्वास को जोड़ने के लिए एक सुई चाहिए। हो सके तो एक दर्ज़ी की उँगलियाँ भी। सौ- सौ चिथड़े जोड़कर एक बड़ी से गुदड़ी बनाने के लिए। एक साबुन चाहिए। हो सके तो धोबिन की धुलाई का मर्म भी। बीसों घड़ों का पानी उलीचकर, कामनाओं का चीकट धोने- सुखाने के लिए। … और अंत में एक झोला चाहिए। हो सके तो कवियों का संताप भी। अर्थ गँवा चुके ढेरों शब्दों को उठाकर, एक नई राह की खोज में जाने के लिए…!
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