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उत्तराखंड के चमोली में रविवार को हुए हादसे के बाद कई पहलू सामने आए हैं। एक्सपर्ट्स की मानें तो ग्लेशियर के टूटकर झील में गिरने और उसके बाद हुई तबाही को रोका जा सकता था। ये लोग लगातार सरकार और प्रशासन को इस बारे में चेताते भी रहे, लेकिन किसी ने भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया। अब इसका खामियाजा आज दर्जनों जिंदगी गंवाकर उठाना पड़ रहा है।
मेरी रिपोर्ट मानी होती तो न आपदा आती, न किसी की मौत होती: रवि चोपड़ा
2013 की केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट की कमेटी का मैं अध्यक्ष था। मैंने तमाम रिसर्च के बाद सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट सौंपी थी। उसमें था कि जिन घाटियों का तल 2000 मीटर से ज्यादा गहरा है, वहां बांध नहीं बनाना चाहिए, इसलिए 23 बांध रद्द कर दिए जाएं। उनमें तपोवन विष्णुघाट वाला बांध भी था। स्पष्ट है कि अगर बांध नहीं होता तो कोई रुकावट नहीं आती और पानी अपनी सामान्य रफ्तार से नीचे की ओर चला जाता। न आपदा आती और न ही लोगों की मौत होती।
रिपोर्ट में स्पष्ट था कि अतीत में जो ग्लेशियर पीछे हटे हैं, वे अपने पीछे मलबा और पत्थर छोड़ गए हैं। जब बारिश या बर्फ पिघलने या अन्य कारण से पानी नीचे आता है तो पूरे मलबे को इकट्ठा करके नीचे उतरता है। अगर रास्ते में कोई रुकावट आती है तो पानी उसे तोड़ देता है। 2013 में विष्णु प्रयाग में हुआ था और वैसे ही हादसा रविवार को धौली गंगा में हुआ। हमारी रिपाेर्ट के खिलाफ निर्माण कंपनियां और सरकार कोर्ट में चली गई। अभी भी केस चल रहा है।
जिनकी शिकायत की, उन्हीं अधिकारियों के नेतृत्व में जांच कमेटी बनाई: संग्राम सिंह
हम पहाड़ में रहने वाले लाेग हैं। जानते हैं कि प्रकृति से छेड़छाड़ करेंगे तो ऋषि गंगा-विष्णुप्रयाग जैसी आपदा को नहीं रोका जा सकता। ऋषि गंगा प्राेजेक्ट में तो निर्माण कंपनी ने खुद आपदा को निमंत्रण दिया। कंपनी ने सभी हदें पार कर दीं। खुलेआम विस्फोट करके प्रकृति को चुनौती दी जाएगी तो पहाड़ गिरने से कैसे रुकेगा। नदी के मुहाने पर ही क्रेशर प्लांट लगा दिया। नंदा देवी अभ्यारण्य के बफर जोन में इनके विस्फोट से निकले पत्थरों से जानवरों की मौत होने लगी। बिना अनुमति पेड़ काटकर जंगल को उजाड़ने लगे।
हम शिकायतों पर शिकायतें कर रहे थे। लेकिन बांध बनाने वालों पर कोई असर नहीं हो रहा था। हमने स्थानीय से लेकर प्रादेशिक सरकारी महकमे को भी बताया, लेकिन किसी ने नहीं सुना। हमने सीएम तक को आवेदन दिया, लेकिन सब तरफ से निराश हुए। फिर हमने हाईकोर्ट में पिटीशन फाइल की, जो अब भी लंबित है। हमने एनजीटी में शिकायत की तो एनजीटी ने उन्हीं अधिकारियों की कमेटी बना दी, जिनकी हम शिकायत करते आए थे।
पर्यावरण को बचाने के लिए चिपको आंदोलन किया था, उसी ने उजाड़ दिया: भगवान सिंह
अभी तो मैं सरपंच हूं, लेकिन कंपनी से पर्यावरण और नदी को बचाने के लिए बहुत पहले से आंदोलन कर रहा हूं। प्रशासन से लेकर सरकार का कोई ऐसा अधिकारी नहीं है, जिससे हमने शिकायत न की हो। जिस पर्यावरण को बचाने के लिए हमने चिपको आंदोलन किया, उसी पर्यावरण को उजाड़ने के कारण आपदा ने हमें उजाड़ दिया। अब आपदा के बाद देखिए, हमे अपना गांव छोड़कर 3 किमी ऊपर एक चट्टान पर बैठना पड़ रहा है। हमारे साथ बुजुर्ग, बच्चे, महिलाएं हैं। लेकिन हमारी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
खाना भी आस-पास के गांव से बनाकर ला रहे हैं। कोई राहत है न टेंट या राहत सामग्री। लाइट तो पहले ही बंद हो चुकी है। सीएम भी आए। विधायक महेंद्र भट्ट भी आए, लेकिन गांव की तरफ किसी ने नहीं देखा। सभी को उस कंपनी की चिंता है, जहां सब कुछ खत्म हो चुका है। हमें तो अब भी चिंता है, इसलिए ऊंचे चट्टान पर बने एक खंडहर में महिलाओं और बुजर्गों को बिठा दिया है। बाकी लोग आग जलाकर निगरानी कर रहे हैं।
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