भास्कर ओपिनियनराजनीति:आलाकमान क्या, जैसे किसी दर्ज़ी के हवाले हैं तमाम राजनीतिक पार्टियाँ

4 महीने पहले
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जैसे - जैसे चुनाव क़रीब आ रहे हैं, राजस्थान का सियासी पारा गर्म तवे की तरह अपने चरम की ओर जा रहा है। दरअसल, ये आलाकमान भी अजीब चीज़ होती है। राजनीतिक पार्टी जो भी हो, आलाकमान या हाईकमान के काम करने का ढर्रा अमूमन एक- सा ही होता है। विवादों को लटकाना और लटकाए रहना इनकी ख़ास रणनीति होती है। सही भी है, राजनीति में फ़ैसले तुरंत होने लगें तो रायता फैलते देर नहीं लगती। हालाँकि राजनीति में रायता फैलने के लिए ही होता है, लेकिन समेटने में देर हो तो दिक़्क़त हो जाती है।

राजस्थान में कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों के लिए अब रायता समेटने की बारी है। दोनों पार्टियों के आलाकमान अब रायता समेटने की तैयारी में है। वैसे ये पार्टी आलाकमान एक तरह के दर्ज़ी होते हैं। ये कुछ नया गढ़ते नहीं, बल्कि विवादों- समझौतों के बीच कुछ सिलते रहते हैं। वैसे ही, जैसे दादी- नानी फटे- पुराने कपड़े सिलती रहती थीं। कुल मिलाकर, देश की तमाम राजनीतिक पार्टियाँ किसी दर्ज़ी के हवाले हैं। दर्ज़ी तो दर्ज़ी होता है, कभी- कभी नाप इधर- उधर भी हो ज़ाया करता है।

राजस्थान में कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों के लिए अब रायता समेटने की बारी है।
राजस्थान में कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों के लिए अब रायता समेटने की बारी है।

यही वजह है कि एक ही पार्टी के नेताओं में विवाद होते रहते हैं। मेरी क़मीज़ तेरी क़मीज़ से बड़ी कैसे? उसकी क़मीज़ मेरी क़मीज़ से सफ़ेद कैसे?

यही सब सवाल सचिन पायलट और अशोक गहलोत के मन में भी उठ रहे हैं। लेकिन दर्ज़ी है कि किसी निदान पर पहुँचने को तैयार ही नहीं है। पहले लग रहा था कि पुराना अध्यक्ष कुछ करके ही विदा होगा। फिर मल्लिकार्जुन खडगे नए अध्यक्ष बन गए। लगा ये कोई निदान करेंगे। लेकिन कुछ नहीं हुआ। फिर लगा गुजरात- हिमाचल के चुनाव के बाद कुछ हो सकता है, वे भी बीत गए, जैसे ख़ाली समय बीत जाता है। आख़िर खुद राजस्थान के चुनाव सिर पर आ गए।

अब रायपुर में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक होने वाली है, इसलिए लग रहा है कि अब तो पार्टी की तरफ़ से कोई निर्णय ज़रूर आएगा। चाहे कार्यकारिणी के बाद आए या पहले आए। निर्णय तो क्या कहिए, कोई समझाइश ही होगी। जैसे पायलट को मुख्यमंत्री पद के लिए ज़्यादा अधीर न होने की समझाइश। जैसे अशोक गहलोत को पायलट के लिए हल्के शब्दों का प्रयोग न करने की समझाइश। कांग्रेस से और ज़्यादा उम्मीद है भी नहीं।

भाजपा का एक ख़ेमा सतीश पूनिया को ही एक्सटेंशन देने की हिमायत कर रहा है, जबकि दूसरा ख़ेमा वसुंधरा राजे के नेतृत्व में चुनाव लड़ना चाहता है।
भाजपा का एक ख़ेमा सतीश पूनिया को ही एक्सटेंशन देने की हिमायत कर रहा है, जबकि दूसरा ख़ेमा वसुंधरा राजे के नेतृत्व में चुनाव लड़ना चाहता है।

उधर भाजपा में भी हलचल कम नहीं है। वहाँ मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष को बनाए रखने या हटाने को लेकर विवाद चल रहा है। पार्टी का एक ख़ेमा सतीश पूनिया को ही एक्सटेंशन देने की हिमायत कर रहा है, जबकि दूसरा ख़ेमा वसुंधरा राजे के नेतृत्व में चुनाव लड़ना चाहता है। निर्णय पार्टी को करना है। लगता है फ़रवरी में ही इस बारे में भी फ़ैसला हो ही जाएगा।