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राष्ट्रीय सुरक्षा के बहाने असम की राजनीति पर की गई सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत की टिप्पणी के कारण ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के नेता सलाहुद्दीन ओवैसी और एआईयूडीएफ के नेता बदरुद्दीन अजमल को उस पर आपत्ति करने का मौका मिला है। इसके बावजूद अगर वे जनरल रावत के भाषण के आखिरी हिस्से पर गौर करेंगे तो उनका विरोध शांत हो जाएगा, क्योंकि उन्होंने बाहर से आई आबादी को भगाने की बजाय स्थानीय आबादी के साथ घुलने-मिलने की बात भी की है।
जनरल रावत अपने व्याख्यान में चीन और पाकिस्तान की घुसपैठ कराने वाली भारत विरोधी गतिविधियों का जिक्र कर रहे थे और उससे पैदा होने वाले खतरों के प्रति आगाह कर रहे थे। यह विषय सेना की चिंताओं में शामिल है और ऐसा उचित भी है। उससे आगे निकलकर जब सेनाध्यक्ष रावत अजमल की पार्टी की भाजपा से तुलना और फिर उसे मुसलमानों की राजनीति करने वाली बताकर उस पर भारत के विरोधियों का उद्देश्य पूरा करने का आरोप लगाते हैं तो विवाद पैदा होता है।
हफ्ते भर पहले जब कश्मीर के सुजवां में आर्मी कैंप पर आतंकी हमला हुआ था तो ओवैसी ने कहा था कि उस हमले में शहीद होने वाले सात जवानों में पांच कश्मीरी मुस्लिम थे। उस समय सेना की तरफ से कड़ा प्रतिवाद करते हुए कहा गया था कि सेना शहीदों का मज़हब नहीं देखती। सेना के कुछ पूर्व अधिकारियों ने भी यह बताया था कि आम जनता और राजनेताओं को सेना के ढांचे की जानकारी नहीं है। सेना में सभी लोग हिंदू और मुस्लिम होकर नहीं भारतीय होकर काम करते हैं। वह जवाब भारत के उच्च धर्मनिरपेक्ष आदर्शों को व्यक्त करने वाला था। उसके चंद दिनों बाद ही सेना के बहाने धार्मिक विवाद उठना दुर्भाग्यपूर्ण है और इससे राष्ट्रीय स्तर पर सेना के राजनीतिकरण का गलत संदेश जाता है।
ऐसे में सेना प्रमुख का यह दायित्व बनता है कि वे अपने पद से किसी प्रकार का साम्प्रदायिक अर्थ निकलने वाला संदेश न दें, क्योंकि भारतीय समाज अपने राष्ट्रीय आख्यान में जटिल और उलझन भरा है और उसके संतुलन को बिगाड़ने वाली ताकतें बाहर से भीतर तक सक्रिय हैं। भारतीय सेना अपने पड़ोसी देशों की सेना से अलग एक प्रोफेशनल संगठन के रूप में काम करती रही है और उसे राजनीतिक ध्रुवीकरण से बचाकर रखना ही होगा।
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