2014 के आम चुनाव के पहले कर्कश चुनाव प्रचार में दोहराए जाने वाली थीम थी ‘गुजरात मॉडल।’ भाजपा का कहना था कि नरेंद्र मोदी के केंद्रीय सत्ता में आने से नई दिल्ली के यथास्थितिवादी श्रेष्ठिवर्ग को गांधीनगर से ताज़ा हवा का झोंका मिलेगा और गुजरात आज जो सोच रहा है, वह कल भारत सोचेगा। आज वही ‘गुजरात मॉडल’ कसौटी पर है जब सीबीआई विवाद ने किसी खतरनाक ‘गैंग वॉर’ जैसा स्वरूप ले लिया है।
गुजरात मॉडल है क्या? राजनीतिक संदर्भ में इसका मतलब है सर्वोच्च नेता के रूप में मोदी के कद के लिए भाजपा और भाजपा के बाहर सारे संभावित दावेदारों का लगभग सफाया। जहां गुजरात में भाजपा कभी वरिष्ठ नेताओं का ‘परिवार’ हुआ करती थी, 2014 आते-आते वहां केवल एक असंदिग्ध ‘बिग बॉस’ बचा था। अंतर्निहित राजनीतिक ‘मिशन’ सबसे अच्छी तरह भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नारे में व्यक्ति हुआ, जिसमें ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का वादा था या हाल ही में उनकी इस शेखी में प्रतिध्वनित हुआ कि भाजपा देश पर अगले 50 साल शासन करेगी। लेकिन, ‘गुजरात मॉडल को अधिक आकर्षक बनाने के लिए इसे ‘विकास’ की आकर्षक धारणा के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के रूप में पेश किया गया। गुजरात के चमचमाते बंदरगाह, हाई-वे, चौबीसों घंटे बिजली और तेजी से होते शहरीकरण की अच्छी तरह गढ़ी गई तस्वीर को इस बात का सबूत प्रचारित किया गया कि ‘कुशल’ शासन की मोदी की शैली उच्च वृद्धि, समृद्धि और दुनिया की विश्वशक्तियों में देश के सुनिश्चित स्थान के युग की शुरुआत करेगी। गुजरात की कहानी के अंधेरे पक्षों की अनदेखी कर दी गई। फिर चाहे वह अत्यधिक बंटा हुआ समाज हो या क्षेत्रीय और आमदनी आधारित खुली विषमताएं हों।
लेकिन, ‘गुजरात मॉडल’ को लोगों के गले उतारने का सबसे विशिष्ट पहलू था ऐसे कड़े और निर्णायक नेता के रूप में प्रधानमंत्री मोदी की ब्रांडिंग, जो सुस्त व अक्षम सरकारी मशीनरी की लालफीताशाही को तोड़कर काम करके दिखाएंगे। गुजरात की व्यापक स्तर पर बहुत प्रशंसा की गई। खासतौर पर बिज़नेस के शीर्ष लोगों ने इसकी ‘सिंगल विंडो’ से मंजूरी देने वाले ऐसे राज्य के रूप में सराहना की, जहां किसी सांस्थानिक अनुशासन की बजाय व्यक्ति के काम को ज्यादा महत्व है। ऐसी कहानियां, जिनमें कुछ संदिग्ध हैं, बहुत सुनी गई कि कैसे गांधीनगर में मुख्यमंत्री के ऑफिस (सीएमओ) से सिर्फ एक फोन आपका ‘काम करा लेने’ के लिए काफी है।
सरकारी निर्णय प्रक्रिया में चेक्स व बेलैंस जरूरी होते हैं पर पूरे सिस्टम को एक व्यक्ति की इच्छाओं के मुताबिक ढालने के प्रयास में उनसे मुक्ति पा ली गई। ‘सिंगल विंडो’ सर्वशक्तिमान सीएमओ का मतलब यह हुआ कि भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाली संस्थाएं भी राजनीतिक कार्यपालिका के मातहत बना दी गईं। राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर मोदी और गुजरात के राज्यपाल के बीच टकराव इसका खास उदाहरण है कि जब महत्वपूर्ण नियुक्तियों की बात हो तो कैसे गांधीनगर की मोदी सरकार संवैधानिक प्राधिकारी को भी जगह देने की इच्छुक नहीं थी। राज्य में मानव अधिकार और सूचना आयोगों को जैसे हाशिये पर डाल दिया गया उससे भी पता चलता है कि कैसे सरकार अधिक सार्वजनिक जांच-पड़ताल की संभावना से बेचैनी महसूस करती थी।
अपनी केंद्रीकरण वाली प्रवृत्तियों के साथ ‘गुजरात मॉडल’ शायद छोटे राज्य में चल जाता लेकिन, जब उसे प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में दोहराना चाहा गया तो वह दबाव में आ गया, क्योंकि वहां काम के विविध चरित्र और सरकारी मशीनरी की व्यापकता ही किसी ‘नियंत्रण’ वाली मानसिकता के खिलाफ है। सीबीआई के शीर्ष पर अप्रत्याशित ‘युद्ध’ इस बात का नवीनतम उदाहरण है कि जब शासन का कोई मॉडल ऊपर से इस तरह थोपा जाता है तो क्या होता है।
यह संकट तो तभी शुरू हो गया था जब पीएमओ ने गुजरात के विवादास्पद आईपीएस अधिकारी राकेश अस्थाना को देश की शीर्ष जांच ऐजेंसी पर डायरेक्टर के रूप में थोपने का प्रयास किया था। केवल सुप्रीम कोर्ट के दखल ने ही यह तख्तापलट रोक दिया। पीएमओ, वरिष्ठ नौकरशाही और जांच एजेंसियों में देखें तो वहां गुजरात काडर के अधिकारियों की अनुपात से अधिक संख्या दिखती है, जिनमें से अधिकांश वे हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री के पूर्व अवतार में उनके साथ निकट से काम किया है।
दलील दी जा सकती है कि मोदी तो सिर्फ ज्यादातर पूर्व प्रधानमंत्रिमयों की ही परीपाटी का पालन कर रहे हैं, जो अपने साथ तालमेल रखने वाले अधिकारी चुनते रहे हैं। लेकिन, अपने ‘कम्फोर्ट जोन’ में बने रहने के लिए अफसर चुनना एक बात है और महत्वपूर्ण नियुक्तियां करते वक्त संवैधानिक मानकों और सांस्थानिक स्वतंत्रता के लिए निरादर बिल्कुल अलग बात है। जहां रघुराम राजन को आरबीआई गवर्नर के पद से मुक्त करने से सरकार पर यह आरोप लगा था कि इसे असहमति की आवाज बर्दाश्त नहीं होती, तो सीबीआई विवाद ने और भी गंभीर आरोप की ओर इशारा किया है कि मोदी सरकार राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में दखल देना और ‘दागी’ अफसरों का संरक्षण करना चाहती है।
याद रहे कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध योद्धा होना प्रधानमंत्री की खुद गढ़ी गई प्रमुख छवि थी, जो उनके इस एक पंक्ति के बयान से परिभाषित हुई थी- ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा।’ अब जब अस्थाना के खिलाफ एकतरह से वसूली का रैकेट चलाने का आरोप लगाने वाली एफआईआर दायर होने के 24 घंटे के भीतर एफआईआर दायर करने वाले सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा को हटाकर जांच दल बदल दिया गया है तो क्या संदेश दिया जा रहा है? क्या उन्हें विवाद के कारण या अटकलों के मुताबिक विवादास्पद रफाल सौदे की जांच की योजना बना रहे थे इसलिए हटाया गया? अस्थाना को भी बाहर करना पड़ा है पर क्या उनके खिलाफ लगे गंभीर आरोपों की पूरी तरह जांच होगी? शायद यही वक्त है कि प्रधानमंत्री इन असुविधाजनक प्रश्नों पर अपने ‘मन की बात’ उजागर करें।
पुनश्च : जब यूपीए सत्ता में थी तो सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को ‘पिंजरे में कैद तोता’ कहा था। अब जब एनडीए के मातहत सीबीअाई पूरी तरह विभाजित होकर सामने आई है तो हम इसे क्या नाम दें? शायद गिद्ध, जो राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त एजेंसी होने की अपनी घटती विश्वसनीयता के मृत शरीर पर चोंच मार रहा है।
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