स्पेशल फोर्सेस: कश्मीर में पाक को मुंहतोड़ जवाब

4 वर्ष पहले
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  • अफगानिस्तान के आतंकियों के इस्तेमाल से निपटने के लिए हमें भी रणनीति बदलनी होगी

दोहा में अमेरिका के साथ 9वें दौर की बातचीत के बाद तालिबान के मुख्य वार्ताकार मुल्ला अब्दुल गनी बारादर ने घोषणा की कि अफगानिस्तान से कोई 13 हजार अमेरिकी सैनिकों को हटाने पर समझौता होने वाला है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा था कि 8,600 अमेरिकी सैनिक वहां रहेंगे। वैसे इस बात की संभावना नहीं है कि कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति, किसी भी कारण से अफगानिस्तान में सैन्य दुस्साहस करेगा। लेकिन, फिर भी अल-कायदा, इस्लामिक स्टेट और इसी तरह के अतिवादी गुटों को तालिबान अफगानिस्तान में शरण नहीं दिए जाने पर अमेरिका का जोर देना भारत के लिए किस तरह महत्वपूर्ण है? इसकी वजह यह है कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने की पृष्ठभूमि में पाकिस्तानी फौज और आईएसआई के पास आईएस और अल-कायदा के आतंकियों का इस्तेमाल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वे इन्हें नकदी से लुभाने और ‘काफिर’ भारत से कश्मीर में लड़ने के लिए भड़काने का प्रयास कर सकते हैं।   आईएसआई अब आईएस-कायदा रणनीति का इस्तेमाल करेगा, क्योंकि पाक के पास कोई विकल्प नहीं है। पाक प्रधानमंत्री इमरान पहले परमाणु धमकी दे ही चुके हैं और सिगार मुंह में दबाकर चलने वाले रेलमंत्री शेख रशीद अहमद ने नवंबर तक युद्ध छिड़ने की बात कही थी (हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि यह किस साल होगा!) पाक सेना प्रमुख कमर बाजवा फौज की स्टाइक कोर के अग्रिम मोर्चों के दौरे पर गए थे और उन्होंने उसकी बहादुरी की बहुत सराहना की। इस पृष्ठभूमि में नई दिल्ली ने केवल इन दावों को खारिज करने के बयान ही जारी किए हैं। इससे दो बातें हुई हैं। इससे पाक नेतृत्व विचारहीन लोगों का समूह नज़र आया है। वे भूल जाते हंै कि फौज के पास गोला-बारूद व स्पेयर पार्ट्स का भंडार इतना ही है जो बमुश्किल एक हफ्ता चल सके (यह राहत की बात नहीं है, क्योंकि भारतीय फौज के पास भी एक पखवाड़े के युद्ध के लायक ही सैन्य सामग्री है।) विकल्प न होने पर रावलपिंडी का सैन्य मुख्यालय और इस्लामाबाद क्या करेंगे? वे रणनीति बदल देंगे। घाटी के लड़कों व लश्कर-ए-तय्यबा के मार्फत आईएसआई से पूर्व में प्रशिक्षित मीरपुरी मुस्लिम युवाओं से कहा जाएगा कि वे पथराव करें, आईईडी रखे और इसी प्रकार की हरकतें करके भारतीय सैन्य यूनिटों को उलझाकर रखें। जबकि कड़ा संघर्ष आईएस-कायदा के गिरोहों पर छोड़ दें, जिन्हें अफगानिस्तान से जम्मू-कश्मीर में भेजा जाएगा। इससे तालिबान की सत्ता अमेरिका के अनुकूल रहेगी, पाकिस्तान भी संयुक्त राष्ट्र के फाइनेंशियल टास्क फोर्स के शिकंजे से यह कहकर बच निकलेगा कि भारत में हिंसा कर रहे अफगानिस्तान के आतंकी हैं। फिर वह कश्मीर के इस्लामीकरण पर भी ध्यान देगा, जो भारत को बांटने के गुजवा-ए-हिन्द के लक्ष्य की दिशा में पहला कदम है। यह बहुत पुराना प्रोजेक्ट है। यदि आईएसआई यह रास्ता अपनाता है तो अब तक भारतीय बलों ने जम्मू-कश्मीर में जिस तरह स्थिति से मुकाबला किया है, उसमें वास्तविक बदलाव करना होंगे।   अग्रिम मोर्चों पर राष्ट्रीय राइफल और वैसे आमतौर पर सेना को और अधिक आक्रामक व निर्दयी होना होगा ताकि आईएस-कायदा के उन लड़ाकाओं की कट्‌टरता को जवाब दिया जा सके, जो कोई रियायत नहीं दिखाते हैं। राष्ट्रीय राइफल इसके लिए ठीक बल नहीं है। लड़-लड़कर पक्के हो चुके आईएस-कायदा में शामिल उज्बेक, सोमाली, अफगान, अरब आतंकियों से स्पेशल फोर्सेस बखूबी निपट सकती है। उनके फायदे की बात यह है कि उनसे कायदे-कानून से लड़ने की अपेक्षा नहीं होती। वे आतंकियों के हथकंडों को उन्हीं की तरह का जवाब दे सकते हैं। लेकिन, स्पेशल फोर्सेस नीति को सफल होने के लिए आतंकियों की पहचान हेतु लगातार पक्की खुफिया जानकारी चाहिए होगी। क्योंकि एसएफ को छोटे-मोटे आतंकी गुटों और भटके हुए घाटी के युवाओं को काबू करने के लिए इस्तेमाल करना समय व प्रयासों की बर्बादी होगी। स्पेशल फोर्सेस के लिए यह वरदान होगा- कट्‌टर से कट्‌टर आतंकियों से निपटने और मात देने का मौका। इससे बल अपने सैन्य कौशल को और धार दे सकेगा। यह नियंत्रण रेखा पर घुसपैठ को नाकाम बनाने में वक्त ज़ाया करने से बेहतर होगा। ( भरत कर्नाड, रिसर्च प्रोफेसर, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च व सुरक्षा विशेषज्ञ )