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संसद के इस बजट सत्र ने राष्ट्रीय राजनीति में आए नए मोड़ का संकेत दे दिया है। दशकों व्यक्तियों या धार्मिक और जातिगत पहचानों के इर्द-गिर्द बुनी गई प्रतिद्वंद्वी विचारधाराओं पर लड़ते रहने के बाद भारत आर्थिक नीतियों पर स्पष्ट बहस के युग में कदम रख रहा है। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस भाषण से साफ हो जाता है, जिसमें उन्होंने निजीकरण की खुली और बेबाक वकालत की है। यह अहम बदलाव है।
आमतौर पर भारतीय राजनीति आर्थिक मसले पर एकध्रुवीय रही है। पहले नेहरू ने अपने पार्टी में जो दक्षिणपंथी थे, उन्हें किनारे किया। उसके बाद उनकी बेटी ने उनकी पूरी तरह छुट्टी कर दी। उसी दौरान राष्ट्रवाद में लिपटे समाजवादी मार्का लोकलुभावन कदमों से उन्होंने उदारवादी दक्षिणपंथी विपक्षी दल स्वतंत्र पार्टी को बर्बाद कर दिया। लेकिन उनके सबसे मुखर विरोधी समाजवादी, लोहियावादी और कम्युनिस्ट ही थे।
भारत की राजनीतिक अर्थनीति में सैद्धांतिक ध्रुवीकरण की गुंजाइश न के बराबर रह गई थी। अब चुनौती यह थी कि सबसे ज्यादा समाजवादी कौन बनता है। जनसंघ और बाद में भाजपा तक इस तंबू की ओर खिंची चली आई। पांच दशकों तक हर खेमा, दूसरे खेमों पर गोलाबारी करता रहा। इस बीच वे सब आर्थिक सुधारों की बातें भी करते रहे।
मानवीय किस्म के सुधारों, सबको साथ लेकर चलने वाले, समाजवादी किस्म के सुधारों की। कुल मिलाकर सुधारों के छलावे की बातें। या जैसा कि सीताराम केसरी ने मेरे इस सवाल पर, कि वे चीन समर्थक कम्युनिस्टों को बस ड्राइवर जैसा क्यों बताते हैं, यह कहा था, ‘क्योंकि वे बायीं तरफ हाथ देकर दायीं तरफ मुड़ जाते हैं।’
दुखद तथ्य यह है कि हम मुड़ते नहीं हैं, बस सुस्त चाल से, भटकते हुए सीधे चलते रहे हैं, जो कि भारतीय खासियत है। मोदी के शुरुआती 6 साल ऐसे ही रहे हैं। अब स्थिति बदली है। एक पक्ष ने खुद को निजीकरण का खुला समर्थक घोषित कर दिया है, जबकि दूसरा पक्ष समाजवाद का समर्थन कर रहा है।
पहली बात तो यह है कि बजट ने निजीकरण की बात की है, विनिवेश की नहीं। दूसरी बात यह कि प्रधानमंत्री ने निजी क्षेत्र का साफ-साफ पक्ष लिया। उन्होंने कहा कि निजी क्षेत्र की बदौलत ही आज पूरी दुनिया कृतज्ञ भाव से भारत में बनी वैक्सीन खरीद रही है। उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के बारे में वह सब कहा, जो सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों ने आज तक नहीं कहा था।
उन्होंने सवाल किया कि कोई IAS अफसर व्यवसाय क्यों चलाए? अगर वह भारतीय है, तो निजी उद्यमी भी तो भारतीय ही हैं। संपदा का निर्माण करने वालों का अपमान मत कीजिए। भारत के सत्ता पक्ष की ओर से सदन में ऐसी बातें आपने पहले कभी सुनी थी क्या?
यह अगर संपदा का निर्माण करने वालों के पक्ष में एक भारतीय प्रधानमंत्री का सबसे मजबूत बचाव था, वह भी संसद में; तो राहुल गांधी के संक्षिप्त मगर वजनी जवाब ने उनकी पार्टी के वामपंथी झुकाव को फिर स्पष्ट किया। राहुल ने तीन नए कृषि कानूनों की कमियां गिनाते हुए कहा कि सप्लाई और कीमतों पर धन्ना सेठों का नियंत्रण हो जाएगा। गरीब किसान उनकी दया पर निर्भर हो जाएंगे। यह सब ‘हम दो’ यानी मोदी और शाह अपने (‘हमारे दो’) दो दोस्तों यानी अंबानी व अडानी के लिए कर रहे हैं।
राहुल ने उनके नाम नहीं लिए मगर कोई शंका नहीं छोड़ी। पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने कहा, ‘बजट अमीरों के द्वारा, अमीरों का और अमीरों के लिए है। यह बजट उन 1% भारतीयों के लिए है, जो 73% राष्ट्रीय संपदा पर कब्जा किए बैठे हैं।’ विरोधी खेमे के सांसद-दर-सांसद कुल मिलाकर इसी लाइन पर कायम रहे।
मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों ने विपक्ष की बड़ी एकजुटता के लिए पहली चिंगारी सुलगा दी है। सरकार व्यापक उभार वाली सबसे बड़ी चुनौती से मुक़ाबिल है। महत्वपूर्ण श्रम कानून भी इसी दौरान पास किए गए हैं। इसके अलावा, बड़ी और शोपीस मानी गईं कंपनियों के निजीकरण के वादे किए जा रहे हैं। LIC को शेयर बाज़ार में लिस्ट करने की भी बात है।
इन सबमें मजदूर संघों से जुड़े कामगारों की बड़ी संख्या है। इसलिए विरोध हो सकता है। विपक्ष के लिए बेशक इन्हें हवा देना मुफीद होगा। वह इन्हें राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। लोकतंत्र में राजनीति ऐसे ही तो चलती रही है। दूसरे पक्ष के प्रति सद्भावना या निष्पक्षता से कोई सत्ता नहीं हासिल कर पाया है।
आज हमारी राजनीति में अर्थनीति को लेकर दक्षिण-वाम का स्पष्ट विभाजन पहली बार हुआ है। राजनीतिक अर्थनीति को लेकर मेरे विचार क्या हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इससे पड़ता है कि अगली बार लोग जब वोट देने जाएंगे तब उनके सामने निजी क्षेत्र की खुलकर पैरवी करने वालों और नए समाजवादियों के बीच चुनाव का स्पष्ट विकल्प उपलब्ध होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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