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अभय कुमार दुबे का कॉलम:साजिशें राजे-महाराजाओं के जमाने में होती थीं। पर आज तो उर्वर दिमागों की उपज हैं

2 महीने पहले
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अभय कुमार दुबे अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर - Dainik Bhaskar
अभय कुमार दुबे अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर

राजनीतिक समीक्षा का एक लोकप्रिय पहलू साजिश का चश्मा लगाकर नेताओं, पार्टियों और राजनीतिक घटनाक्रम की समझ बनाने से जुड़ा है। कोई कभी भी आपके कान में फुसफुसाकर कह सकता है कि अमुक नेता अमुक की जड़ काटने में लगा है।

अगर आप इस खबर का प्रमाण मांगेंगे तो बदले में केवल एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट मिलेगी। साजिश के चश्मे से देखने पर देश में हो रही हर घटना में विदेशी हाथ दिखाई पड़ सकता है। एक जमाने में जाने कितने नेताओं, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और संगठनों को या तो सीआईए का एजेंट कहा जाता था या केजीबी का।

वह शीतयुद्ध का युग था और ऐसा कहने के लिए किसी को सबूत देने की जरूरत नहीं होती थी। यही कारण है कि इस रवैये की आलोचना करने के लिए पीलू मोदी को गले में तख्ती लटकाकर संसद आना पड़ा था। तख्ती पर लिखा था- मैं सीआईए एजेंट हूं।

हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता हरीश खुराना ने एक बयान देकर साजिशों के बाजार को नए सिरे से गर्म कर दिया है। जैसे ही पूर्व-उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का बंगला नई शिक्षा मंत्री आतिशी को आबंटित हुआ, वैसे ही उन्होंने अंदेशा व्यक्त कर दिया कि कहीं अरविंद केजरीवाल अपने प्रमुख सहयोगी से पल्ला छुड़ाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं।

बस, फिर क्या था। मीडिया इसे ले उड़ा और इस कयास में हकीकत के काल्पनिक रंग भरे जाने लगे। अगर षड्यंत्र-सिद्धांत (कॉन्स्पिरेसी थ्योरी) को दरकिनार कर दिया जाए तो इस घटना को इस तरह भी समझा जा सकता था कि जिस शिक्षा विभाग का कामकाज देखने की जरूरतों के तहत मनीष को यह बंगला मिला था, उन्हीं जरूरतों के तहत इसे नए शिक्षा मंत्री को आबंटित किया जा रहा है।

ध्यान रहे कि दिल्ली में सत्ता से वंचित हो जाने वाले नेता सालों-साल बंगला आदि की सुविधाओं को भोगते रहते हैं। इसके कई उदाहरण हैं। बजाय इसके कि इसकी तारीफ की जाती, इसमें साजिश का कोण ढूंढ लिया गया। बहरहाल, यह कोई पहली बार नहीं हुआ है।

एक राजनीतिक समीक्षक के रूप में मैं न जाने कबसे इस तरह की फुसफुसाहटें सुन रहा हूं कि अमित शाह नरेंद्र मोदी को धोखा देने वाले हैं या नरेंद्र मोदी अमित शाह के बढ़ते रुतबे से सशंकित हैं। मैंने तो यह भी सुना है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ और अमित शाह के बीच छत्तीस का आंकड़ा बन चुका है।

मुझे यह भी बताया गया है कि सरकार के कई कदमों के पीछे अमेरिका या अन्य अंतरराष्ट्रीय ताकतों का हाथ है। मैंने कभी इन बातों पर यकीन नहीं किया। न ही मैं अपनी समीक्षा में इन्हें कोई तरजीह देता हूं। दरअसल यह सब दिमाग पर जोर डालने से बचने की कोशिश के सिवा कुछ और नहीं है।

मेरा मानना रहा है कि राजनीतिक यथार्थ तक पहुंचना है तो सामाजिक और राजनीतिक शक्तियों के बनते-बिगड़ते संतुलन पर निगाह रखी जानी चाहिए। कॉन्स्पिरेसी थ्योरी थोड़ी देर के लिए आपका मनोरंजन कर सकती है और कुछ नहीं। यह बात सही है कि साजिशें राजे-महाराजाओं के जमाने में निर्णायक भूमिका अदा करती थीं। पर आज के जमाने में वे केवल उर्वर दिमागों की उपज रह गई हैं।

इन साजिशों की बातों पर जाएं तो संघ न जाने कब से मोदी को गिराने का षड्यंत्र कर रहा है। इसी तरह राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के बीच मतभेदों की खबरें जाने कितनी बार उड़ाई जा चुकी हैं। जब प्रियंका राजनीति में खुलकर नहीं आई थीं तो यही कहा जाता था कि राहुल उन्हें नहीं आने दे रहे हैं। जब प्रियंका राजनीति में आ चुकी हैं तो अब इस बात को कोई याद नहीं कर रहा है।

इसी तरह एक बहुत बड़ी कॉन्स्पिरेसी थ्योरी ईवीएम हैक करने के अंदेशों की है। चुनाव आयोग को इससे टकराना पड़ा है। लेकिन इसका अंत होते हुए नहीं दिखाई देता। मेरा ख्याल है कि यह भी भाजपा की जीत के सामाजिक-राजनीतिक कारणों का विश्लेषण न कर पाने में विफलता का परिणाम है।

राजनीति के आसमान में साजिश उसी तरह से प्रकट होती है, जैसे कभी अंतरिक्ष में उड़नतश्तरियां प्रकट होती थीं। न उड़नतश्तरियों का कोई प्रमाण मिला, न ही इन राजनीतिक साजिशों का। याद रखना चाहिए कि साजिश के चश्मे से राजनीति को देखने वाले हमेशा गलत आकलनों तक पहुंचते हैं।

एक बड़ी कॉन्स्पिरेसी थ्योरी ईवीएम हैक करने की है। चुनाव आयोग को इससे टकराना पड़ा है। यह भाजपा की जीत के सामाजिक-राजनीतिक कारणों का विश्लेषण न कर पाने में विफलता का ही परिणाम है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)