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अभय कुमार दुबे का कॉलम:विभिन्न राज्यों में चुनावी सुगबुगाहट के बीच फिर जाति की राजनीति पर चर्चा

एक वर्ष पहले
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अभय कुमार दुबे का कॉलम, सीएसडीएस, दिल्ली में
प्रोफेसर और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक - Dainik Bhaskar
अभय कुमार दुबे का कॉलम, सीएसडीएस, दिल्ली में प्रोफेसर और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक

एक पुरानी कहावत है कि जो तलवार के दम पर जीता है, वह तलवार के घाट उतरने से नहीं बच सकता। इस कहावत के आईने में भारत की लोकतांत्रिक राजनीति देखी जा सकती है। बस तलवार की जगह ‘जाति’ शब्द को रख देना होगा। जो राजनीति जाति के दम पर कामयाब होती है, वह जाति के हथियार से ही नाकाम कर दी जाती है। इस कथन को प्रमाणित करने के लिए न जाने कितनी मिसाल दी जा सकती हैं।

इसका सबसे प्रभावशाली उदाहरण है सामाजिक न्याय की राजनीति का दावा करने वाली पार्टियां। किसी एक प्रधान जाति को आधार बना कर, उसके इर्द-गिर्द अन्य जातियों को जोड़कर, सत्ता में आने की रणनीति बनाने वाले ये दल अपने इस फॉर्मूले के कारण कमोबेश तीस साल तक सफलता का स्वाद चखते रहे। चूंकि इन दलों के पास सामाजिक न्याय के नाम पर ‘जाति-प्लस’ की राजनीति करने का कोई संकल्प और योजना का अभाव था, इसलिए भाजपा ने जाति की वैसी ही राजनीति करने का बेहतर कौशल दिखाकर इन्हें इनके खेल में ही मात दे दी।

दूसरी तरफ भाजपा से उम्मीद की जाती थी कि वह भी दूसरों की तरह जातियों का जोड़-तोड़ करेगी, लेकिन उसके पास ‘जाति-प्लस’ जैसा कोई न कोई आश्वासन भी होगा। भले ही वह हिंदुत्व की विचारधारा से निकलता हो या कमजोर जातियों को राजनीति के मैदान में बराबर का मौका देने वाला हो। लेकिन धीरे-धीरे साफ होता जा रहा है कि भाजपा का जातिगत गठजोड़ दूसरों के मुकाबले आकार में बड़ा और जातियों के लिहाज से अधिक विविध तो है, लेकिन ‘जाति प्लस’ उसमें से भी गायब है।

अगर ऐसा न होता तो आजकल उत्तर प्रदेश के चुनाव की तैयारी करते समय ब्राह्मण, जाट और गूजर जैसे प्रमुख जाति समुदायों के हाथ से निकलने के अंदेशे से उसकी सांस न फूल रही होती। और वो और उप्र भाजपा इस समय यह गारंटी भी नहीं दे सकती कि पिछले तीन चुनावों की तरह सभी गैर-यादव पिछड़े और गैर-जाटव दलित इस बार भी उसके साथ बने रहेंगे। दरअसल, केवल और केवल जातियों के जोड़-तोड़ की राजनीति जल्दी ही मेंढक तोलने की गतिविधि में पतित हो जाती है।

आप एक मेंढक उठा कर पलड़े में रखते हैं, तो दूसरा कूद कर बाहर निकल जाता है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस गुजरात में अपना यह हश्र होते देख चुकी है। माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में उसने ‘खाम’ (कोली, क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुसलमान) की राजनीति करके विधानसभा चुनाव धमाके से जीत लिया। लेकिन, दुष्परिणाम यह हुआ कि पटेल वोट उसके हाथ से हमेशा-हमेशा के लिए निकल गए। गुजरात में भाजपा के लम्बे वर्चस्व की बुनियाद इसी ‘खाम’ राजनीति ने डाली थी।

यह सही है कि समाज जातियों में बंटा है, और राजनीतिक गोलबंदी की सर्वप्रमुख इकाई जाति ही है। लेकिन जातियां सत्ता में भागीदारी ही नहीं, बल्कि आर्थिक विकास के साथ-साथ सामाजिक, वैचारिक और सांस्कृतिक स्पर्श भी चाहती हैं। यही वह ‘जाति-प्लस’ है, जिसे मुहैया कराने में पार्टियां विफल रहती हैं। सच्चा हो या झूठा, आजादी के बाद केवल कांग्रेस के पास यह स्पर्श था।

जैसे ही कांग्रेस भी जातियों के खोखले गठजोड़ बनाने लगी, उसके पलड़े से भी मेंढक छिटकने शुरू हो गए। कांग्रेस का यह हश्र होना करीब बीस साल बाद शुरू हुआ था। भाजपा स्वयं को विचारधारात्मक पार्टी जरूर कहती है, लेकिन इसके बावजूद उसको यह गति कांग्रेस के मुकाबले काफी कम समय में होती दिख रही है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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