एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर’ की प्रेस फ्रीडम इंडेक्स संबंधी रपट ने भारत पर आरोप लगाया है कि पिछले कुछ वर्षों से देश में पत्रकारिता की आजादी के स्तर में गिरावट हो रही है। जबकि असलियत यह है कि भारत में प्रेस की आजादी का नजारा इस तरह के इंडेक्सों और उनके खंडन-मंडन की कवायद से कहीं पेचीदा है। हमारे यहां प्रेस की आजादी मुख्य तौर पर तीन चरणों से गुजरकर मौजूदा मुकाम पर पहुंची है।
कंधे पर झोला डाले रिपोर्टिंग करने वाले भारतीय पत्रकार की छवि पिछले साठ-सत्तर साल में लम्बा सफर तय कर चुकी है। इसमें पहला परिवर्तनकारी मुकाम तब आया, जब अंग्रेजी के एक शीर्ष दैनिक के सम्पादक ने दावा किया था कि भारत के प्रधानमंत्री के बाद देश की सबसे ताकतवर हस्ती उसी को समझा जाना चाहिए। वहीं एक अन्य ताकतवर ‘खोजी पत्रकारिता’ के रुझान को लोकप्रिय करने में लगे थे।
झोले वाले रिपोर्टर के लिए यह स्वर्णयुग था। चाहे दिल्ली जैसा महानगर हो, या कोई प्रादेशिक राजधानी अथवा छोटा कस्बाई शहर, इस पत्रकार को लगता था कि उसका रुतबा बुलंद है। वह पुलिस से लेकर नेता तक और इलाके के सबसे अमीर व्यक्ति से लेकर सबसे बड़े सट्टेबाज तक समान गति और आत्मविश्वास के साथ अपनी जरूरत के मुताबिक आवाजाही करने में सक्षम था।
दिल्ली वाला रिपोर्टर अधिक संसाधन और बेहतर कौशल से लैस होता था। लेकिन छोटे शहर का अखबारनवीस भी खुद को संवाददाताओं, सम्पादकों और लेखक-पत्रकारों की उसी बिरादरी का सदस्य पाता था, जिसे लोकतंत्र का चौथा खम्भा मानने में किसी को हिचक नहीं थी। पिछली सदी में 80 और 90 के दशक तक इस पत्रकार के दिमाग में स्वयं को प्रेस की आजादी का वाहक मानने में कोई संदेह नहीं था।
पत्रकार की हस्ती प्रेस की आजादी के मर्म में थी। कहना न होगा कि यह जमाना सूचना-क्रांति और सोशल मीडिया से पहले का था। उस समय छपी हुई खबर प्रमुख होती थी। खबरिया चैनल और यूट्यूब चैनलों की कल्पना भी नहीं थी। पत्रकार का वक्ता होने से कई संबंध नहीं था। उसे लेखक ही होना पड़ता था। लेखक होने की प्रक्रिया में वह भाषा को साधता था, और यह प्रयास अपने आप पत्रकार को एक तरह का संयम और आत्मानुशासन प्रदान कर देता था।
मीडिया का आकार उस समय छोटा था। इस दुनिया की पूंजी-सघनता भी आज जैसी नहीं थी। लेकिन, यह चरण बहुत दिन नहीं चल पाया। जैसे-जैसे पूंजी की मात्रा बढ़ी, नई प्रौद्योगिकी ने पत्रकार के लेखक होने की अनिवार्यता को मंद किया- वैसे-वैसे रिपोर्टर के महत्व का क्षय होता चला गया। आज अतीत का रिपोर्टर कमोबेश लुप्त हो चुका है। मीडिया की पूंजी-सघन और प्रौद्योगिकी-निर्भर दुनिया में लेखक-पत्रकार की खास हैसियत नहीं रह गई है।
वह मौजूद तो है, लेकिन नए मीडिया की फ्रंट-डेस्क पर न होकर पृष्ठभूमि में चला गया है। उसका लिखा हुआ टेक्स्ट एंकर द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है। प्रिंट मीडिया में अभी भी अच्छे लेखकों का बोलबाला है, लेकिन वहां भी सम्पादक की संस्था अपदस्थ कर दी गई है, और प्रकाशक व प्रबंधक की संस्था ने उसका स्थान ले लिया है। तीसरा चरण प्रेस की आजादी और सरकार के सबंधों को बदलने वाला साबित हुआ।
सार्वजनिक जीवन और भारतीय राज्य की नीतियों ने बाजारवादी और दक्षिणपंथी रुझान ग्रहण करना शुरू किया। इस नई प्रवृत्ति ने पत्रकारों और मीडिया प्रतिष्ठान के संचालकों के मानस को कब्जे में लेने में कम से चालीस साल लगाए। देश में प्रेस इस समय तकनीकी रूप से आजाद है, लेकिन उसने बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद के मुक्त स्वर का प्रतिकार करने के अधिकार से स्वयं को वंचित कर लिया है। यदाकदा उभरकर चमक उठने वाले अपवादों को छोड़कर भारतीय प्रेस की आजादी का प्रचलित नियम यही बन गया है।
पहले सम्पादक गण सरकारी लाइन पर चलने से परहेज करते थे। एक तरह की ‘आंख की शर्म’ अलिखित तरीके से काम करती थी। इससे बने अंतराल में लेखक-पत्रकार सरकार के खिलाफ आलोचनात्मक विवेक के इस्तेमाल का मौका पा जाता था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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