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अभय कुमार दुबे का कॉलम:आज प्रत्येक भारतीय पूंजीपति-घराना विश्व के पूंजी बाजार से गहराई तक जुड़ा है

2 महीने पहले
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अभय कुमार दुबे अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर - Dainik Bhaskar
अभय कुमार दुबे अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर

पहली फरवरी को जब वित्त मंत्री केंद्रीय बजट पेश कर रही थीं, ठीक उसी समय एक अमेरिकी संस्था हिंडनबर्ग की रपट के प्रभाव में आकर हमारा स्टॉक एक्सचेंज चाहते हुए भी बजट पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने में असमर्थ दिख रहा था। हिंडनबर्ग रपट का ताल्लुक किसी भी तरह से बजट से नहीं था।

उसमें भारतीय अर्थव्यवस्था के खिलाफ एक लफ्ज भी नहीं कहा गया था। बावजूद इसके, स्टॉक एक्सचेंज बजट से उत्साहित होकर केवल शुरुआत में ही थोड़ा उछला, और फिर अदाणी समूह के शेयरों की जबर्दस्त बिकवाली के दबाव में उसका सूचकांक धड़ाम से गिर गया। यह प्रकरण हमें नए सिरे से सोचने पर मजबूर करता है कि जिस युग को हम भूमंडलीकरण का युग या बाजारवाद का जमाना कहते हैं, उसमें पूंजी का किरदार किस कदर बदल चुका है।

औद्योगिक क्रांति से पहले जो पूंजी हम लोगों के आर्थिक जीवन को संचालित करती थी, वह मुख्य तौर पर व्यापारिक पूंजी या मर्चेंट कैपिटल थी। 18वीं सदी के बाद इसे पीछे धकेलकर जिस पूंजी ने नियंत्रणकारी भूमिका प्राप्त कर ली, वह औद्योगिक पूंजी थी। लेकिन 1990 में जिस भूमंडलीकरण का आगाज हुआ, उसने आर्थिक दुनिया में एक नई ताकत का आधिपत्य स्थापित किया।

यह थी वित्तीय पूंजी या फाइनेंस कैपिटल की ताकत। इस कैपिटल का न कोई देश था, न कोई सरकार थी, न संस्कृति। वह सीमाओं के आर-पार नई संचार प्रौद्योगिकी के पुष्पक पर सवार होकर बिना आराम किए निरंतर गतिशील रहने लगी।

यही कारण है कि जब अदाणी समूह ने हिंडनबर्ग रपट के जवाब में दावा किया कि उस पर किया गया हमला दरअसल भारत पर प्रहार है, तो इस पूंजी ने फुसफुसाकर कहा कि मेरी हुकूमत में ‘नेशनलिज्म’ नहीं बल्कि ‘रैशनलिज्म’ का रुतबा चलता है। अदाणी समूह और उसके समर्थकों की आवाज वित्तीय पूंजी की फुसफुसाहट के नीचे दब गई। शेयरों का गिरना जारी रहा और स्टॉक एक्सचेंज बजट पर चाहते हुए भी सकारात्मक अनुक्रिया करने से वंचित रह गया।

अगर हम देखना चाहें तो इस मुकाम पर हम अपने आर्थिक भविष्य की तस्वीर के कुछ पहलुओं को नए सिरे से देख-समझ सकते हैं। मसलन, 1990 में भूमंडलीकरण की शुरुआत जरूर हो गई थी, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ने में लम्बा समय लगा। इसीलिए 2008 में जब अमेरिकी वित्तीय बाजारों में संकट आया तो भारत कमोबेश उससे अछूता रह गया।

आज की स्थिति यह है कि प्रत्येक भारतीय पूंजीपति-घराना विश्व के पूंजी बाजार से गहराई से जुड़ा है। यही कारण है कि वह भारत ही नहीं दुनिया भर से पूंजी उठाता है। दूसरे सभी घरानों समेत अदाणी समूह ने भी ऐसा ही किया है। लेकिन इस प्रक्रिया में भारतीय पूंजीवाद के ये बड़े-बड़े प्रतिनिधि वित्तीय पूंजी के वैश्विक निजाम के विभिन्न मुख्यालयों के बीच की कड़ी बन गए हैं। अगर कोई एक कड़ी गड़बड़ाती है तो उस भारतीय घराने के विदेशी बांड्स की गिरी हुई साख का असर भारत के वित्तीय बाजार पर पड़ना तय है।

जिस समय अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के दम पर भारत के उद्योगपति घराने प्रगति की उछालें भरते हुए हमारे सीने को गर्व से फुला रहे होते हैं, उस समय हमें याद नहीं रहता कि अगर किसी वजह से यह कड़ी भंग हुई, तो सबसे पहली उसी की हवा निकलेगी। हिंडनबर्ग रपट ने यही भूमिका अदा की।

हमारा स्टॉक एक्सचेंज इस समय 60 हजार से ज्यादा की उन ऊंचाइयों पर है जिनके बारे में हम पहले कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हमारे बाजार को इन शिखरों पर जिन ताकतों ने पहुंचाया है, उन्हें विदेशी संस्थागत पोर्टफोलियो निवेशक कहा जाता है। ये भूमंडलीकरण की संतान हैं। वित्तीय पूंजी की तरह ये भी राष्ट्रों की सीमाओं में नहीं बंधे हैं।

एक आंकड़े के अनुसार हमारे स्टॉक एक्सचेंज में जून 2022 तक 1089 अरब डॉलर की पूंजी इन विदेशी संस्थागत निवेशकों ने लगाई हुई थी। इसके मुकाबले हमारे देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 605 अरब डॉलर ही था। चाहे सेबी हो या फ्रॉड की जांच करने वाली कोई संस्था हो- इस वित्तीय भूकम्प के मर्म में हो रहे घटनाक्रम से परदा उठाने की जिम्मेदारी उन्हीं की है।

2008 में जब अमेरिका के वित्तीय बाजार में संकट की शुरुआत हुई थी, तब वहां सरकार द्वारा नियुक्त पूंजी के नियंत्रकों ने उससे जुड़ी समस्याओं को नजरअंदाज किया था। आज ऐसा ही नजारा भारत के सामने है। दांव पर केवल एक औद्योगिक समूह ही नहीं है, बल्कि इस भूमंडलीकृत आर्थिक निजाम में भारतीय अर्थव्यवस्था का दूरगामी भविष्य भी दांव पर लगा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)