हाल ही में दिल्ली में एक प्रारम्भिक जी-20 समिट हुई, जिसमें सभी सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों ने शिरकत की। इसे भारत के कूटनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना बताया गया है। सर्वत्र इसकी सराहना हुई। लेकिन कुछ पहलुओं की अनदेखी की गई है, जिन पर बात करना जरूरी है। इसके लिए हमें रायसीना डायलॉग 2023 का परीक्षण करना होगा।
यह भारत का सालाना डिप्लोमैटिक इवेंट है। इसकी मेजबानी देश के प्रमुख थिंक टैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन या ओआरएफ द्वारा की जाती है। इसका शुभारम्भ प्रधानमंत्री करते हैं और आमतौर पर इसमें एक अन्य राष्ट्र-प्रमुख द्वारा सहभागिता की जाती है।
पेनल में केंद्रीय मंत्रियों समेत पूर्व राष्ट्राध्यक्ष सम्मिलित होते हैं। लेकिन इस बार के रायसीना डायलॉग में रूसी विदेश मंत्री सेर्गेई लव्रोव आश्चर्यजनक रूप से बिगड़ उठे। उन्होंने अकारण ही अपने मॉडरेटर यानी ओआरएफ चेयरमैन सुंजोय जोशी को लताड़ा और उन पर पक्षपात करने का आरोप लगाया, जबकि जोशी का व्यवहार संयत था।
दरअसल, लव्रोव की नाराजगी का कारण भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा एक दिन पूर्व की गई एक भूल थी। अनेक सदस्य देशों का मत था कि संयुक्त वक्तव्य में यूक्रेन में हो रहे युद्ध की निंदा की जाए। मसौदा वक्तव्य में युद्ध का उल्लेख किया गया, लेकिन रूस और चीन ने इस पर आपत्ति ली। दूसरी तरफ दूसरे देश भी अड़ गए कि युद्ध का उल्लेख किए बिना वे संयुक्त वक्तव्य पर दस्तखत नहीं करेंगे। इससे विदेश मंत्रालय दुविधा में पड़ गया, क्योंकि समिट की सफलता साझा वक्तव्य पर ही निर्भर थी।
सामान्य डिप्लोमैटिक प्रोटोकॉल यह है कि जब किसी साझा वक्तव्य पर सहमति बनाई जाती है तो सभापति द्वारा एक टिप्पणी की जाती है, जो मेजबान देश के लक्ष्यों का सार-संक्षेप प्रस्तुत करती है। लेकिन इस मामले में सभापति यानी विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने सभापति के रिमार्क के साथ ही एक मसौदा वक्तव्य भी जारी किया, जिसमें वे बिंदु शामिल थे, जिन पर रूस और चीन को आपत्ति थी। रूस और चीन के अनुसार यह भारत सरकार का अधिकृत बयान था और इसके माध्यम से उन दोनों देशों को शर्मिंदा करने की कोशिश की गई थी। लव्रोव विदेश मंत्रालय से खफा थे, लेकिन ओआरएफ के अध्यक्ष पर बरस पड़े।
मजे की बात यह है कि यह समूचा एपिसोड और उसके पीछे निहित कारण राजधानी में सबको भलीभांति पता थे, इसके बावजूद विदेशी मामलों को कवर करने वाले किसी मीडिया सदस्य ने इस पर लिखने में रुचि नहीं दिखाई।
गोदी मीडिया का आरोप लगाना बड़ा सरल है, लेकिन इसके पीछे की हकीकत यह है कि आज किसी भी न्यूज आउटलेट के पास इतने पैसे नहीं है कि वे अपने किसी संवाददाता को नियमित रूप से विदेश भेजें और विदेशी मामलों की गहरी और जमीनी छानबीन उससे करवाएं। इसके बजाय विदेश मंत्रालय से हैंडआउट्स की मांग की जाती है और मंत्रालय बड़ी आसानी से अपनी गलतियों को छुपाने में कामयाब हो जाता है।
ऐसे में दिल्ली में हुई जी-20 समिट की कथित सफलता का आकलन कैसे करें? हमें बतलाया गया कि इतने सारे देशों के विदेश मंत्रियों को एक साथ ले आना बड़ी डिप्लोमैटिक कामयाबी थी। या जल्द ही इन तमाम देशों के राष्ट्र-प्रमुख भी दिल्ली में जुटेंगे, यह भी बड़ी सफलता होगी।
भारत दिल्ली में रूस और अमेरिका के विदेश मंत्रियों की भेंट कराने में सफल रहा, यह भी छोटी बात नहीं। लेकिन यह सब तो होना ही था ना? जी-20 में 19 देश और यूरोपियन यूनियन शामिल हैं। ये 19 देश चार-चार देशों के पांच समूहों में विभक्त हैं। दक्षिण अमेरिकी समूह में चार के बजाय तीन ही देश हैं- ब्राजील, अर्जेंटीना और मैक्सिको।
इन तमाम समूहों में शामिल देशों को बारी-बारी से जी-20 की अध्यक्षता का मौका मिलता है। अभी तक भारत, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील ही इससे वंचित थे। भारत के समूह (ग्रुप 2) में भारत, रूस, दक्षिण अफ्रीका और तुर्किये शामिल हैं। रूस और तुर्किये पहले ही जी-20 की मेजबानी कर चुके हैं।
दक्षिण अफ्रीका बीते साल दंगाग्रस्त रहा और दिवालिया होने की कगार पर है। ऐसे में भारत को अध्यक्षता का मौका मिलना स्वाभाविक था। याद रहे दुनिया की इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था का नम्बर तब आया है, जब पहले ही 19 में से 16 देश जी-20 की अध्यक्षता कर चुके हैं, जबकि एक अन्य देश इसकी स्थिति में नहीं था। तब क्या सच में यह इवेंट भारत की कूटनीतिक जीत कहा जा सकता है?
भारत का नम्बर तब आया, जब पहले ही 19 में से 16 देश जी-20 की अध्यक्षता कर चुके हैं, जबकि एक अन्य देश इसकी स्थिति में नहीं था। तब क्या सच में यह भारत की कूटनीतिक जीत कही जा सकती है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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