डॉ. वेदप्रताप वैदिक का कॉलम:अफगानिस्तान संकट: आखिर हम तालिबान से परहेज क्यों करें?

2 वर्ष पहले
  • कॉपी लिंक
डॉ. वेदप्रताप वैदिक अफगान मामलों के विख्यात विशेषज्ञ, dr.vaidik@gmail.com - Dainik Bhaskar
डॉ. वेदप्रताप वैदिक अफगान मामलों के विख्यात विशेषज्ञ, dr.vaidik@gmail.com

अफगानिस्तान से अमेरिका की फौजें 11 सितंबर 2021 को वापस होंगी। अमेरिका के कुल 3500 और नाटो के 8500 सैनिक अपने-अपने देश में चले जाएंगे। तब क्या होगा? अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार का मानना है कि उसके 3 लाख फौजी काफी हैं। वे शांति व्यवस्था बनाए रखने में समर्थ हैं। तालिबान से लड़ने का असली काम तो अफगान सैनिक ही कर रहे हैं।

यदि यह सच है तो पहला सवाल है कि अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्सों पर तालिबान का कब्जा कैसे जारी है? एक अनुमान के अनुसार, बड़े अफगान शहरों के अलावा सर्वत्र तालिबान ने अपना प्रशासन कायम किया हुआ है। उनकी सरकार, टैक्स उगाही और शरीयत अदालतें वहां सक्रिय हैं।

दूसरा, दोहा में तालिबान से समझौता हो जाने के बावजूद अफगान सेना उनके हमलों को रोकने में असमर्थ क्यों रही है? तीसरा, यदि गनी-अब्दुल्ला सरकार काबुल में मजबूत है तो विदेशी फौजों की जो वापसी एक मई को होनी थी, उसे अगले चार माह तक क्यों टाल दिया गया है? चौथा, यदि सब ठीक-ठाक है तो अमेरिकी विदेश मंत्री अचानक काबुल क्यों पहुंचे थे, डाॅ. अब्दुल्ला दिल्ली क्यों आए थे और अफगान पार्टियां अब तुर्की में क्यों मिलने वाली हैं?

इसीलिए कि सभी घबराए हुए हैं कि अमेरिकी वापसी के बाद पता नहीं क्या होगा? क्या वैसा ही तो नहीं होगा, जैसा सोवियत-वापसी के बाद नजीबुल्लाह सरकार का हुआ था? नजीबुल्लाह की खल्की-परचमी सरकार गिर गई, मुजाहिदीन का राज कायम हो गया और नजीबुल्लाह को फांसी पर लटका दिया गया।

लगभग अगले 8-9 साल तक मुजाहिदीन और तालिबान काबुल में डटे रहे, लेकिन अफगानिस्तान अराजकता और इस्लामी कट्टरवाद की रस्सी पर लटका रहा। 2001 में अमेरिकी फौजों के आगमन पर हामिद करजई की लोकतांत्रिक सरकार बनी, लेकिन पहले करजई और अब गनी-सरकार को तालिबान क्रमशः रूस और अमेरिका की कठपुतली सरकारें कहते रहे हैं।

तालिबान को पूरा विश्वास है कि अफगानिस्तान की फौज रातों-रात पल्टा खाएगी और वह उनका समर्थन करेगी। तालिबान मूलतः गिलजई पठानों का संगठन है। फौज में पठानों की बहुसंख्या है। इसके अलावा तालिबान सरकार को पाकिस्तान का खुला समर्थन मिलेगा। इधर, रुस और चीन के साथ भी उसके संबंधों में सुधार हुआ है। उसके जानी दुश्मन अमेरिका के साथ उसकी गलबहियों को सारी दुनिया देख रही है। ज्यों ही अमेरिकी फौजों की वापसी हुई, काबुल पर तालिबान का कब्जा होने में देर नहीं लगेगी।

ऐसे में भारत का क्या होगा, मेरी सबसे बड़ी चिंता यही है ? 56 साल पहले मैंने अफगानिस्तान पर शोध-कार्य शुरु किया था। मैंने अफगान लोगों में भारत के प्रति उत्कट प्रेम और विलक्षण सम्मान ही पाया है। भारत की लगभग सभी सरकारें मुजाहिदीन वऔर तालिबान से दूरी बनाकर रखती रही हैं। लेकिन इन नेताओं से मेरी मुलाकातें होती रही हैं। 1999 में हमारे अपहृत जहाज को कंधार से छुड़ाने में तालिबान नेताओं से मैंने संपर्क किया था, उसमें हमें सफलता भी मिली।

तालिबान अफगानिस्तान में इस्लामी राज्य कायम करना चाहते हैं लेकिन उन्हें अपने आर्यवंशीय होने पर भी गर्व है। वे पाकिस्तान के आभारी हैं लेकिन पख्तूनिस्तान की आजादी और पंजाबी वर्चस्व पर उनका गुस्सा हमेशा उन्हें भड़काए रखता है। अपना राज कायम करने के बाद वे पाकिस्तान के लिए सबसे बड़े सिरदर्द भी बन सकते हैं।

जिन पठानों ने तीन बार अंग्रेजों और एक-एक बार रुसियों और अमेरिकियों को पटकनी मार दी, वे भला पंजाबी फौज के गुलाम बनकर कैसे रह सकते हैं? अब तो रुस, चीन और अमेरिका भी तालिबान से संवाद कर रहे हैं। पता नहीं क्यों, भारत डरा हुआ है ? भारत को चाहिए कि तालिबान के सभी प्रतिद्वंदी गिरोहों से वह संवाद बनाकर रखे।

इसका अर्थ यह नहीं कि वह काबुल की गनी-अब्दुल्ला सरकार को रामभरोसे छोड़ दे। भारत चाहे तो वह पाकिस्तान का सहयोग भी ले सकता है, इस संकट को हल करने में ! लेकिन असली सवाल यही है कि क्या हमारे नेता और विदेश मंत्रालय के अफसर अफगानिस्तान की अंदरुनी सच्चाइयों से परिचित भी हैं या नहीं ? और क्या संपूर्ण दक्षिण एशिया के नेतृत्व की क्षमता भी उनमें है या नहीं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)