साल 2023 की शुरुआत में हमारे रणनीतिक और कूटनीतिक निर्णयकर्ताओं के सामने एक चिंतित कर देने वाला भू-राजनीतिक परिदृश्य उपस्थित है। भारत दो ऐसे परमाणु शक्तिसम्पन्न पड़ोसियों से घिरा है, जो उसके प्रति अपने वैरभाव के चलते एक हो गए हैं। तीसरा मोर्चा समुद्र में है। हिन्द महासागर में उपस्थित खतरों के समक्ष भारतीय नौसेना मुस्तैदी से तैनात है, लेकिन चीन वहां घुसपैठ करना चाहता है।
लदाख के कुछ हिस्सों पर बीते तीन सालों से चीन की फौज डेरा डाले हुए है। भारतीय सेना इन बड़ी चुनौतियों का सामना बिना किसी दीर्घकालीन राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (एनएसएस) के कर रही है। सेना के लिए जरूरी वैज्ञानिक और औद्योगिक बेस के निर्माण नहीं हुए हैं, जो सैन्य-उपकरणों के विकास और निर्माण के लिए आवश्यक हैं। हमारा रक्षा बजट राष्ट्रीय आय के अनुपात में गिर रहा है।
ऐसे में अनुभवहीन निजी प्रतिरक्षा उद्योग के सामने यह कठिन चुनौती है कि वह स्वयं के संसाधनों से उच्च-तकनीकी शस्त्रों का निर्माण करे। इसी पृष्ठभूमि में भारतीय सेना ने एक अहम रणनीतिक बदलाव किया है, जिसे ‘पिवट टु द नॉर्थ’ यानी उत्तर की धुरी कहा गया। अब हमारे डिप्लॉयमेंट पाकिस्तान पर केंद्रित रहने के बजाय चीन को दुश्मन नम्बर एक मानेंगे।
भारत की दो-तिहाई सैन्यशक्ति पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान के समक्ष तैनात थी। 2020 की गर्मियों से इसमें बदलाव आना शुरू हो गया। तब भारत ने पूर्वी लदाख में चीन की घुसपैठ का प्रतिकार किया था। 18 हजार सैनिकों की तीन पैदल-सेना डिवीजनों को तैनात किया गया, जबकि वहां पहले केवल एक ही डिवीजन मोर्चा सम्भाले थी।
इसके बाद सैन्य मुख्यालय ने अपने तीन में से एक स्ट्राइक कोर को पाकिस्तानी मोर्चे से हटाकर चीनी सीमा पर लगाया। उसे पर्वतीय क्षेत्रों में प्रहार करने में सक्षम बनाया गया, वहीं उसकी दो डिवीजन को जरूरत पड़ने पर तिब्बत पर धावा बोलने के लिए प्रशिक्षित और उपकरणों से सुसज्जित किया गया।
इस बदलाव से पहले सेना की 38 में से 12 डिवीजन ही चीन का सामना कर रही थीं, जबकि 25 डिवीजन पाकिस्तान सीमा पर तैनात थीं। एक डिवीजन सैन्य मुख्यालय के पास रिजर्व में थी। अब 16 डिवीजन चीन का और 20 पाकिस्तान का सामना कर रही हैं, जबकि दो रिजर्व में हैं। चीन या पाकिस्तान इस सिगनल की अनदेखी नहीं कर सकते हैं।
इसके बाद उन्हें भी अपनी रणनीतियों में बदलाव लाना होगा। लेकिन भारत के निर्णयकर्ता सेना के तीनों विभागों में उपकरणों की किल्लत को लेकर चिंतित बने हुए हैं। लदाख में बढ़े तनाव के बावजूद इसकी भरपाई नहीं की गई है। सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति थलसेना की है, विशेषकर आर्टिलरी सेक्शन यानी तोपखाना में। 1980 के दशक में 155 मिलीमीटर और 39 कैलिबर की बोफोर्स गन तोपखाने में सम्मिलित की गई थीं, उसके बाद से ही सेना को आर्टिलरी की भारी तोपों की जरूरत बनी हुई है।
बोफोर्स ने 410 गन्स की सप्लाई की थी और तकरीबन एक हजार इंडियन ओर्डेंस फैक्टरीज के द्वारा बनाई जाना थीं। लेकिन बोफोर्स घोटाले का खामियाजा सेना को भुगतना पड़ा और उसके पास संसाधन सीमित रह गए। अब इंडियन ओर्डेंस फैक्टरीज बोफोर्स के एक अपग्रेडेड 45 कैलिबर वाले वर्जन का विकास कर रही है और सेना ने 145 अल्ट्रालाइट होविट्जर्स हासिल की हैं। डीआरडीओ भी दो निजी क्षेत्र की कम्पनियों के साथ स्वदेशी गन्स के निर्माण की कोशिशों में जुटा हुआ है।
प्रचंड नामक एक लाइट कॉम्बैट हेलीकॉप्टर भी बनाया जा रहा है, जो 20 हजार फीट की ऊंचाई तक उड़ान भर सकता है। यह 15 हजार फीट ऊंचाई पर मौजूद पैदल सेना के जवानों को फायर सपोर्ट प्रदान करेगा, क्योंकि सैनिक इतनी ऊंचाई पर फायर-वेपन्स नहीं ले जा सकते। नौसेना को भी वॉरशिप्स की दरकार है। एक एयरक्राफ्ट कैरियर रूस से खरीदा गया है, वहीं एक अन्य कोचिन शिपयार्ड लिमिटेड में विकसित किया जा रहा है। तीसरे को लेकर रक्षा मंत्रालय अभी सुनिश्चित नहीं है, जो 65 हजार टन कैरियर होगा।
इससे पूर्व मैरिटाइम कैपेबिलिटी पर्सपेक्टिव प्लान के तहत नौसेना के युद्धपोतों को 200 की संख्या तक ले जाने की योजना थी, अभी यह 140 ही है। वायुसेना के सामने भी छोटी चुनौतियां नहीं हैं। उसे 42 फाइटर स्क्वैड्रन्स की दरकार है, जबकि उसके पास हैं केवल 30 ही। 114 लड़ाकू विमानों (6 स्क्वैड्रन्स) को खरीदने या उनका निर्माण करने की योजना धीमी गति से आगे बढ़ रही है। एचएएल भी सुस्त चाल से ही 83 तेजस (लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट) के निर्माण की योजना बना पा रही है।
सेना के लिए यह जरूरी है
भारत शायद दुनिया की इकलौती ऐसी मुख्य सैन्य ताकत है, जिसने अभी तक एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति प्रकाशित कर अपने लक्ष्यों को दर्ज नहीं किया है। यह सेना के रोडमैप के लिए जरूरी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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