भास्कर ओपिनियनमौसम का बदलाव:नंगी, बूढ़ी, गंजी ज़मीन काँपती रहती है, उसका आँचल रह-रहकर थरथराता है

3 महीने पहले
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समय और मौसम का कोई भरोसा नहीं होता। समय भी अनिश्चतता से घिरा रहता है और मौसम भी। हिंदुस्तान के हर कोने में मौसम तेज़ी से बदल रहा है। पहले इसका समय तय होता था। इतने दिन ठण्ड पड़ेगी, इतने दिन बारिश और इतने ही दिन गर्मी। लेकिन अब चूँकि मनुष्य ने अपनी नीतियाँ छोड़ दी हैं, इसलिए पृथ्वी, आकाश, जल और इनसे जुड़ा मौसम भी अपना स्वभाव बदलने को विवश है।

हाल की ही बात है। ठण्ड जाने को है। गर्मी आने को है और ऐसे में कटने को तैयार खड़ी फसलों पर बारिश आ पड़ी। ओले भी गिर गए। किसान तड़प रहा है। फसलें खेतों में औंधी होकर किसानों का मुँह ताक रही हैं। ख़ैर, ऐसा तो होता रहता है लेकिन केरल के हाल देशभर से अलग हैं। और बुरे भी। वहाँ अभी तक बारिश से लोग परेशान थे।

एक्सपर्ट के मुताबिक पिछले दो सालों में उत्तरी भारत में शुरुआती गर्मी ने गेहूं की फसल के उत्पादन को एक स्तर तक कम कर दिया। इस तरह की घटनाओं से खाद्य पदार्थों की कमी हो सकती है और कीमतें बढ़ सकती हैं, जिसका अर्थव्यवस्था और खाद्य सुरक्षा पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
एक्सपर्ट के मुताबिक पिछले दो सालों में उत्तरी भारत में शुरुआती गर्मी ने गेहूं की फसल के उत्पादन को एक स्तर तक कम कर दिया। इस तरह की घटनाओं से खाद्य पदार्थों की कमी हो सकती है और कीमतें बढ़ सकती हैं, जिसका अर्थव्यवस्था और खाद्य सुरक्षा पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

बारिश ख़त्म हुए ज़्यादा दिन हुए नहीं थे कि ग़ज़ब की गर्मी आ गई। गर्मी भी ऐसी कि लू के थपेड़े पड़ रहे हैं। सरकार द्वारा हीट स्ट्रोक्स के अलर्ट जारी किए जा रहे हैं। दरअसल अब हीट इंडेक्स जैसी एक नई तकनीक आई है। इसके ज़रिए मौसम विभाग यह पता लगा लेता है कि गर्मी जितनी डिग्री बताई जा रही है, वास्तव में वह एहसास कितनी डिग्री का दे रही है।

इसके अनुसार केरल में तापमान तो 32 डिग्री ही है लेकिन वो एहसास करवा रहा है 54 डिग्री का। मतलब भर गर्मी में जैसे जैसलमेर तपता है, उतना अभी से केरल तप रहा है। …और काटो पेड, नदियों - नालों को पूर दो, मिट्टी और सीमेंट से। उन पर कॉलोनियाँ काट दो और करोड़ों- अरबों कमाओ।

कौन रोक रहा है? लेकिन आने वाली पीढ़ी जब कोई सवाल करे तो अपने होंठ सी लेना। क्योंकि हमारे पास कोई जवाब तो होगा नहीं। एक जमाना था जब हममें ज़्यादा लालच नहीं था। चाँद सर उठाता था तो हल्की सुस्त- सी हवा, शाख़- शाख़ जाकर नन्हे पौधों को जगाती थी। फसलों के दाने-दाने में दूध भरने लगता था।

नीले- काले आसमान पर सितारे जब चमकते थे, दौड़ने लगते थे सारे दरिया समन्दरों की तरफ़। अन्धे आँखों में भी रोशनी लौट आती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब तो हवाएँ भी गरम तलवारों के झोंके लेकर आती हैं। अब इन हवाओं के हाथ भी ग़ुस्ताख़ हो चले हैं। काट डालते हैं नन्हें- नन्हे सपनों को। नोंच लेते हैं आँचल। सपने बिखरने से डरते रहते हैं।

आँचल रह- रह कर थरथराते हैं और नंगी, बूढ़ी, गंजी ज़मीन काँपती है। दोपहर के आसमाँ पर परिन्दा, आग और पानी से घबराकर अकेला उड़ता रहता है। अपने भूखे और बीमार बच्चों की करोड़ों माँओं की खातिर। लेकिन क्या किया जाए? जो बीत चुका वो बात गई। गुम हुए लम्हों की ख़ातिर तड़पना, कई अनजान बातों से गुजरना। अधूरी, नामुकम्मिल कोशिशों का दर्द, कब तक झेला जाए। इस तरह जीना कुछ टुकड़े- टुकड़े - सा लगता है।