टु द पीपुल - कुल छह बार नियम-परंपराएं बदलीं
संसद एक भवन भर नहीं है, वह परम्पराओं, मूल्यों, नियमों का प्रतिष्ठान भी है, हमारे लोकतंत्र का आधार है। 2014 से लेकर अब तक छह ऐसे अवसर आए हैं, जब संसद में वो घटनाएं हुईं, जो इससे पहले कभी नहीं हुई थीं।
1. जब लोकसभा या राज्यसभा में कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है तो हर सदस्य को डिवीजन द्वारा मतदान का अधिकार होता है। अगर एक भी सांसद कहता है- डिवीजन, तो पीठासीन अधिकारी का दायित्व है कि इस पर मतदान करवाए। यह ध्वनिमत से भिन्न होता है और इसके लिए इलेक्ट्रॉनिक रीति या पर्चियों का उपयोग किया जा सकता है। 2020 में तीन कृषि कानूनों को पारित करते समय राज्यसभा में ध्वनिमत कराया गया था। अनेक सदस्यों ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए डिवीजन की मांग की, जिसे नहीं कराया गया। पीठासीन अधिकारी (उस समय तत्कालीन उपराष्ट्रपति वेकैंया नायडू उपस्थित नहीं थे) ने नियमों को दरकिनार कर दिया। यह इकलौती घटना नहीं। संसद सदस्यों को नियमित ही वोट बाय डिवीजन के अधिकार से वंचित किया जा रहा है। 27 जुलाई 2021 को माकपा के ऐलामराम करीम, 28 जुलाई 2021 को द्रमुक के तिरुचि शिवा और 3 अगस्त 2021 को अनेक सदस्यों ने डिवीजन की मांग की थी, जिसे अनसुना कर दिया गया।
2. 2016 में एक सज्जन को राज्यसभा सदस्य मनोनीत किया गया। वे उन 12 सदस्यों में से थे, जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है। अपने छह वर्षीय कार्यकाल के पांचवें वर्ष में उन्हें 2021 के पश्चिम बंगाल चुनावों के लिए भाजपा उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। उन्होंने राज्यसभा सदस्यता छोड़ दी। पर चुनाव हारने के बाद तीन महीने के भीतर ही उन्हें पुन: राज्यसभा में मनोनीत कर दिया गया। यह पहली बार था, जब किसी व्यक्ति का एक ही कार्यकाल में दो बार मनोनयन किया गया हो और उन्होंने इस बीच चुनाव भी लड़ लिया हो!
3. जब बजट सत्र दूसरी अवधि के लिए पुन: प्रारम्भ होता है तो लोकसभा द्वारा पांच मंत्रालयों के लिए डिमांड फॉर ग्रांट्स पर चर्चा की जाती है। इन पांच के लिए बजट पर विस्तार से चर्चा की जाती है, जबकि शेष मंत्रालयों पर एक साथ मतदान किया जाता है। लेकिन इस साल बिना किसी चर्चा के इन पांचों मंत्रालयों का बजट पारित कर दिया गया। यह 2004-05 और 2013-14 में भी हुआ था, पर अंतर यह है कि 2004-05 में सरकार के विरुद्ध कोई अविश्वास प्रस्ताव नहीं पारित किया गया था। वहीं 2013-14 में बजट को बहस के बिना ही पारित कराने का निर्णय लोकसभा की बिजनेस एडवायजरी कमेटी ने विधानसभा चुनावों के मद्देनजर लिया था। इस बार ऐसा जिस कारण से किया गया, वह अभूतपूर्व है। राज्यसभा में विपक्ष नहीं सत्ता पक्ष की ओर से नारेबाजी की जा रही थी, जिससे पूरा बजट सत्र बेकार चला गया।
4. आम्बेडकर ने सभापति के त्यागपत्र को राष्ट्रपति को सौंपे जाने के प्रस्ताव का विरोध करते हुए उपसभापति की भूमिका को रेखांकित किया था। यह उपसभापति की जिम्मेदारी थी कि स्पीकर के पद को कार्यपालिका से स्वतंत्र बनाए रखें। संविधान का अनुच्छेद 93 कहता है कि सरकार के गठन के उपरांत लोकसभा को तुरंत एक स्पीकर और एक डिप्टी स्पीकर का चुनाव कर लेना चाहिए। लेकिन इस बार चार साल हो गए हैं और अभी तक कोई डिप्टी स्पीकर नियुक्त नहीं किया गया है।
5. बजट सत्र के दौरान वित्त विधेयक पारित किया जाता है। इस पर लोकसभा में वोटिंग होती है और इसे किसी कमेटी को परीक्षण हेतु नहीं भेजा जाता। राज्यसभा इस पर वोटिंग या संशोधन नहीं कर सकती। लेकिन सरकार वित्त विधेयक में गैर-वित्तीय मामलों का भी समावेश कर रही है। इसका फायदा उठाकर संसदीय निरीक्षण बिना ही कानूनों को पास किया जा रहा है। 2016 के वित्त विधेयक में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया एक्ट 1934 में संशोधन का प्रावधान था। 2017 के वित्त विधेयक में मौजूदा ट्रिब्यूनलों में संरचनागत बदलाव सम्बंधी प्रावधान थे और उसके जरिए अनेक कानूनों में वैसे संशोधन किए गए, जिससे इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम लागू हो सकी। 2018 के वित्त विधेयक में तो आधे ऐसे प्रावधान थे, जिनका कराधान से कोई सम्बंध नहीं था।
6. 2017 में रेल बजट का आम बजट में विलय कर दिया गया। पृथक रेल बजट अतीत की बात हो चुका है। लेकिन आश्चर्य क्या? नए संसद भवन के साथ अब सेंट्रल हॉल को भी तो म्यूजियम में ही बदला जा रहा है!
(ये लेखक के अपने विचार हैं। इस लेख के सहायक शोधकर्ता अंकिता दिनकर और शेन बैपटिस्ट हैं)
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