गुरु नानक देव का एक पद है - ठाकुर, तुम शरणाई आया। उतर गयो मेरे मन को संसा। जब ते दर्शन पाया। गुरु नानक देव जी कहते हैं कि हे ठाकुर, मैं तेरी शरण में आया। और जैसे मैं आपकी शरण में आया, मेरे मन में जो संदेह, प्रेम, अंधेरा या दुविधा थी, ये आपके दर्शन से तुरंत खत्म हो गए। मैं आपकी शरण में आया और मेरे मन के सभी उहापोह शांत हो गए। ‘भगवद्गीता’ के संदर्भ में सोचें तो संशय तो नाश कर देता है। आपकी शरण में आने से मेरा संशय दूर हो गया क्योंकि मैंने आपका दर्शन पाया।
गुरु नानक देव आगे कहते हैं- ‘मुझे कुछ कहना नहीं पड़ा, मेरी व्यथा जान ली, अपना नाम मुझे जपाना शुरू करवा दिया। परिणाम ये आया कि मेरे दुःख भागे। वर्षा ऋतु के समय में तालाब में कीचड़ में बहुत मेंढक उछल-कूद करते हैं। उसी तालाब में जब कोई भैंस आकर नहाने के लिए उतरे, तो सब मेंढक अपने आप कूद-कूदकर भाग जाते हैं। दुख क्या है? हमारे जीवन के छोटे-बड़े मेंढक, जो आवाज और उछल-कूद करते रहते हैं।
क्या करें? आप प्रयास करके भी मेंढक को बाहर नहीं निकाल सकते। आपने अपना नाम जपाया तो दुःख हटे और सहज सुख की मुझे प्राप्ति हुई। फिर उसको निज सुख कहो, स्वान्त: सुख, आत्मसुख या परम सुख। कहते हैं, जीव सुख स्वरूप है। यह सहज सुखराशि है। भगवद्गीता से सुख की एक बड़ी सरल व्याख्या पेश करता हूं। कौन सुखी है इस दुनिया में? सहज सुखी कौन है?
शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक् शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर:।।
हम जैसे संसारियों के लिए सहज सुख की इससे बड़ी व्याख्या क्या हो सकती है? यह शरीर छूट जाए, इससे पहले जो साधक काम और क्रोध के प्रचंड वेग को सह लेता है और संयम कर लेता है, वो सहज सुखी है। अब मृत्यु से पहले, शरीर छोड़ने से पहले तो कितनी अवस्था है? पहले बचपन, फिर कुमार अवस्था, युवा अवस्था, फिर वृद्धावस्था आती है। सभी अवस्था में शरीर छोड़ने से पहले जिन्होंने काम-क्रोध के वेग को सह लिया है और प्रसन्नतापूर्वक इन आवेगों को गुरुकृपा से संयमित कर दिया, वो सुखी।
सूरदासजी तो वैसे दृष्टिहीन थे। उनके जीवन के बारे में मैंने सुना है कि वे श्याम के गुणगान गाते-गाते जा रहे थे, रास्ते में बड़ा अंध कूप था, इसी मार्ग पर गति से सूरदास जा रहे थे, तो कूप में गिरना अवश्यंभावी था। भगवान बालकृष्ण को लगा कि ये गिर जाएंगे तो मेरी इज्ज़त नहीं रहेगी। कहते हैं, आधी रात को सूरदासजी की लाठी पकड़कर भगवान बालकृष्ण उनसे बातें करने लगे। सूरदास को आश्चर्य हुआ कि रात में कोई जन नहीं मिलता और ये बालक मुझे लेकर जा रहा है।
और क्या मधुर बोली है! ठाकुर का इरादा था कि सूरदासजी अंध कूप में न गिरें। लेकिन परमतत्त्व के साथ वार्तालाप में सूरदास समझ गए कि ये सामान्य बालक नहीं है। सोचा, मैं लाठी के छोर से ऐसे हाथ को सरकाते-सरकाते इस बालक का हाथ पकड़ लूं, छोडूं ना! ये मेरा माधव है। भगवान कृष्ण मन ही मन मुस्कुरा रहे थे कि अंधे की बुद्धि भी बड़ी कुशल लगती है! मुझे पकड़ना चाहता है!
इतने में ये अंध कूप गोविंद ने पार करवा दिया और सूरदासजी से नहीं रहा गया तो एकदम झपट कर हाथ पकड़ने की कोशिश की, पर हाथ छुड़ाकर भाग गए कृष्ण! उसी समय सूर की आंखें भर गई। सूर ने कहा, ‘बांह छुड़ाके जात हो निर्बल जानके मोही।’ मैं समझ गया, तू कौन है? मेरा हाथ छुड़वाकर जा रहा है क्योंकि मैं अंधा हूं, निर्बल हूं। लेकिन मेरा हृदय छुड़ाकर जाए तो मैं तुम्हें ताकतवर समझूं। एकदम खिल-खिलाकर हंस-हंसके सूर को ठाकुरजी आलिंगन दे देते हैं।
परमतत्व की शरण से मन के संशय मिट जाते हैं। आओ, हम इस परमतत्त्व की शरण में जाएं, उसके दर्शन करके मन के संशयों से मुक्त हो जाएं। वो अनबोलत हमारी व्यथा को जाननेवाले ठाकुर हैं। वो कृपा करके अपना नाम हमको जपाएंगे, तो दुःख दूर हो जाएंगे, सहज सुख मिलेगा। आज के इस माहौल में, आज की इस विकट स्थिति में आखिरी उपाय क्या है? ‘तुम शरणाई आया।’ मेरी हर शंका, मेरा हर भय, मेरी हर दुविधा, तू अनबोलत जानता है। बांह पकड़कर बचा लेना।
Copyright © 2023-24 DB Corp ltd., All Rights Reserved
This website follows the DNPA Code of Ethics.