आज दुनिया एक बड़े महत्वपूर्ण मोड़ पर आकर खड़ी है। जहां विकास भी दिखाई देता है और साथ में विनाश भी। दुनिया का ऐसा कोई भी देश नहीं है, जो विकास के पैमाने पर आगे ना बढ़ा हो और साथ में उसने कुछ विनाश ना झेला हो। फिर भी अगर कुछ देश ऐसे बचे हों जिन्होंने शुरुआती दौर से ही अपने को सीमित रखा या उसे अवसर न मिले हों तब भी उसने अन्य देशों के कारण कुछ न कुछ अवश्य झेला होगा।
इसको ऐसे देख सकते हैं कि समुद्र तट पर बसे छोटे-मोटे देश, जिनका क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे मुद्दे में कोई योगदान नहीं, लेकिन इन्हीं दो बड़े कारणों से आने वाले समय में पिघलती बर्फ इनके लिए बड़े संकट खड़े कर देगी। ऐसे छोटे-मोटे करीब 43 देश हैं, जो समुद्र तटों पर बसे होने के कारण जलमग्न हो जाएंगे।
वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि सन् 2100 तक 83% ग्लेशियर पिघल सकते हैं। दूसरी तरफ जिस स्तर से वायु प्रदूषण लगातार बढ़ता चला जा रहा है, 2050 तक हम इस दुनिया को गैस चैंबर बनने की तरफ ले जाएंगे। पानी का संकट सबसे ज्यादा होगा, मिट्टी जहरीली हो रही है।
पिछले 10-20 दशकों में हमने जो कुछ भी किया, उससे लाभ तो लिए पर उतना ही अब खोना भी है। या फिर कुछ नए रास्ते तैयार करने की पहल हो, ताकि हम विकास के साथ विनाशी ना बनें। यह सबसे बड़ी चिंता का समय भी है क्योंकि अगर आज यह बहस नहीं हुई तो हम और हमारी वापसी संभव नहीं होगी।
एक बात हमें जान लेनी चाहिए कि पृथ्वी में जीवन की समाप्ति कभी नहीं होगी, क्योंकि बदलती परिस्थितियों के चरम में या संसाधनों के अभाव में इंसान भले समाप्त हो जाएं लेकिन प्रकृति कुछ नए तौर-तरीकों के साथ फिर नए जीवन को पनपाएगी।
इस ओर हमने लगातार बातचीत जरूर की है, लेकिन हम उन पहुलओं की तरफ कभी आगे नहीं बढ़े जो कि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता बन चुके हैं। क्या यह संभव है कि हम आने वाले जीवन को इसी तरह से जी सकेंगे। यह प्रश्न आज दुनिया में उभर रहा है और बाढ़, आपदाएं, हवाओं के बदलते रुख, पानी का स्वभाव सब बदल जाना इसके उदाहरण हैं।
अगर विकास चाहिए तो उसकी शैली और प्रक्रिया क्या हो? उस पर हम अपना विज्ञान, सामाजिकी, आर्थिकी के सभी पहलुओं का समावेश करके पारिस्थितिकी के साथ-साथ उसको कैसे बढ़ाएं, इस पर विचार करें। शायद तभी हम प्रकृति की खींची रेखा को पार नहीं करेंगे। नहीं तो हम सर्वनाश की ओर आगे बढ़ जाएंगे।
यह साफ हो चुका है कि वर्तमान तरीके का विकास का मॉडल ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। मतलब अब विकास से पहले विनाश की चिंता कर लेनी होगी। साफ है कि बढ़ती जीडीपी जानलेवा साबित हो सकती है। इसलिए अब बचने के लिए जीईपी (ग्रॉस एनवॉयरमेंट प्रोडक्ट) पर केंद्रित होना होगा। और वो तब ही संभव होगा जब विकास में पारिस्थितिकी को जोड़कर चलें।
हिमालय एक तरह से देश के इकोलॉजिकल स्टोर हैं। जोशीमठ शुरुआत है, वह अगर लगातार इसी तरह टूटता रहा तो हम एक ऐसे भूभाग को खो देंगे जो हमारे जीवन के तमाम संसाधनों का कारण है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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