‘जोशीमठ’ आपदा स्थानीय समस्या मात्र नहीं है, बल्कि गम्भीर चुनौती के उस हिमशैल के समान है, जिसका शीर्ष ही पानी के ऊपर दिख रहा है। अगर हम इसे सिर्फ सतही तौर पर देखेंगे तो बड़ी भूल होगी। जोशीमठ में जो हुआ है, वह पर्यावरण के साथ हस्तक्षेप और उसके होने वाले गम्भीर परिणामों के बारे में एक और चेतावनी है। यह मानव के जंगलों, जानवरों, जमीन, प्रकृति, और पर्यावरण के साथ खतरनाक खिलवाड़ को दर्शाता है।
अन्यथा ‘जोशीमठ’ में खतरे से सबसे पहली बार 1976- यानी सैंतालीस साल पहले- आगाह किया गया था। आज से करीब साढ़े बारह साल पहले यानी मई 2010 में भारत के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक जर्नल ‘करंट साइंस’ में पर्यावरणविदों ने सीधे शब्दों में चेतावनी दी थी कि जोशीमठ बड़े खतरे की ओर बढ़ रहा है। लेकिन इन सबको लगातार अनसुना किया जाता रहा।
आज से एक दशक पहले भारत और दक्षिण एशिया में गिद्धों की आबादी तेजी से गिरने लगी थी। दरअसल 1990 के बाद से पालतू जानवरों में डाइक्लोफेनाक सोडियम की उच्च खुराक का बेवजह और अत्यधिक रूप से इस्तेमाल किया जाने लगा। जिससे, जब ऐसे मृत जानवरों को गिद्ध खाते, तो उनकी मृत्यु होने लगी। परिणामस्वरूप गिद्धों की कई प्रजातियां खत्म होने के कगार पर पहुंच गई थी।
आसमान में उड़ते गिद्धों को भारत के कई राज्यों में शुभ नहीं माना जाता, लेकिन उनका महत्व तब समझ आया, जब उनकी कमी से मरे हुए जानवर हमारे आसपास सड़ने लगे और उनसे इंसानों और जानवरो में बीमारियां फैलने लगीं। यह पर्यावरण और प्रकृति में संतुलन को प्रभावित होने से क्या चुनौतियां उभरती हैं, इसे भी दर्शाता है। पिछले सात दशकों में दुनिया भर में करीब 350 नई बीमारियां- जिनमें कोविड भी शामिल है- फैली हैं और वे करीब दो-तिहाई जंगलों और प्रकृति में मानव के अतिक्रमण का नतीजा है।
दुनिया भर में पर्यावरण का नुकसान, बढ़ता तापमान, जंगलों की कटाई, अंधाधुंध शहरीकरण, एंटीबायोटिक्स का बेवजह इस्तेमाल और ‘एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस’ बड़ी चुनौतियों के रूप में उभर रहे हैं, जिनके गम्भीर परिणाम होने वाले हैं। पिछले एक दशक में मानवों, जानवरों और पर्यावरण के अंतर्संबधों को बेहतर रूप से समझा गया है- और इस अवधारणा को ‘एक स्वास्थ्य’ या ‘वन हेल्थ’ का नाम दिया गया है।
विश्व के कई देश, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं और संयुक्त राष्ट्र अब बात कर रहें हैं कि हमें मिलजुलकर तीनों- मनुष्य, पशु और पर्यावरण को बचाना होगा। भारत वर्ष 2023 में जी-20 देशों के समूह की अध्यक्षता कर रहा है और हमने ‘वन हेल्थ’ को एक मुख्य एजेंडा बनाया है। लेकिन यथार्थ में स्थिति सुधर नहीं रही है। एक वजह यह है कि वैज्ञानिक तथ्यों को नीति-निर्माता कई वजहों से अनसुना करते रहते हैं।
पिछले साल अप्रैल 2022 में प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित एक अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया है कि अगर 2020 से 2070 के बीच दुनिया का तापमान 2 डिग्री बढ़ा तो करीब 15,000 ऐसे कीटाणु- जो फिलहाल जंगलों में हैं- इंसानों के बीच आ जाएंगे और बीमारियों और महामारियों को सम्भावना कई गुना बढ़ जाएगी। ऐसा हुआ तो इसका सबसे अधिक नकारात्मक असर एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों पर पड़ेगा।
अभी के मनुष्यों यानी होमो सेपियन्स के सीधे पूर्वजों में से एक निएंडरथल हैं। कुछ दशक पहले तक विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर मानव-विज्ञानी यह मानते थे कि निएंडरथल सामाजिक नहीं थे, क्रूर थे और एक-दूसरे का ख्याल नहीं रखते थे। लेकिन अभी हाल में मिले साक्ष्य- जिनमें निएंडरथल में चोट या हड्डी टूटने के बाद उनके जुड़ने के जो अवशेष हैं- इशारा करते हैं कि अगर उस निएंडरथल का दूसरे लोगों ने ख्याल नहीं रखा होता तो हड्डी जुड़ नहीं सकती थी।
खैर निएंडरथल के लिए तो कोई लिखित दस्तावेज नहीं है, लेकिन सेपियन्स की अभी की पीढ़ी के लिए लिखित दस्तावेज मिलेंगे। तब आज से कुछ सौ साल बाद जब आने वाली पीढ़ियां हमारा इतिहास पढ़ेंगी, तो इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगी कि 21वीं सदी के मानव पर्यावरण की रक्षा की बात तो करते थे, लेकिन सारे काम वे करते थे, जिनसे पर्यावरण का नुकसान हो।
क्या वास्तव में हम इस रूप में जाने जाना चाहते हैं? अगर नहीं तो नीति-निर्माताओं को पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों, स्वास्थ्य और महामारी विशेषज्ञों को ध्यान से सुनने की जरूरत है। नहीं तो, जोशीमठ अलग रूप में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में उभर आएगा।
नीति-निर्माताओं को पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों, स्वास्थ्य व महामारी विशेषज्ञों को ध्यान से सुनने की जरूरत है। नहीं तो जोशीमठ अलग-अलग रूप में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में उभर आएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Copyright © 2022-23 DB Corp ltd., All Rights Reserved
This website follows the DNPA Code of Ethics.