बीते कुछ दिनों से एच3एन2 फ्लू के बहाने कोविड-19 भी खबरों में आ गया है। एच3एन2 फ्लू की तुलना कोविड-19 से की जा रही है। भारत के एक राज्य में तो 15 दिनों के लिए स्कूल भी बंद कर दिए गए। इन्हें अफरातफरी में लिए गए निर्णय ही कहा जाएगा। इनसे यह भी साबित होता है कि तीन साल पहले फैली कोविड-19 महामारी से हमने ज्यादा कुछ सीखा नहीं है।
सबसे पहली बात तो यह याद रखने जैसी है कि इस बात के कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं कि कोविड-19 की कोई नई लहर भविष्य में आने वाली है। वास्तव में कोविड की शुरुआत के बाद से यह पहला मौका है, जब सार्स-कोव2 का कोई भी नया वैरियंट खतरनाक नहीं बताया गया है।
15 मार्च को डब्ल्यूएचओ के तकनीकी विशेषज्ञ समूह ने ओमिक्रॉन के खतरे को भी अब डाउनग्रेड कर दिया है। यह कोविड का पिछला वैरिएंट ऑफ कंसर्न था। नया कोई खतरनाक वैरिएंट मौजूद नहीं है, ऐसे में किसी नई लहर की सम्भावनाएं शून्य हैं।
दूसरी बात यह है कि हमें यह क्यों बताया जा रहा है कि बीते चार महीनों में कोविड के मामले अपने उच्चतम स्तर पर हैं? यह आंकड़ों की गलत व्याख्या है। जैसे-जैसे फ्लू के मामले बढ़ रहे हैं, उसके लक्षणों वाले व्यक्तियों की कोविड-19 की जांच भी कराई जा रही है। इस कारण ज्यादा केस डिटेक्ट हो रहे हैं। यानी बढ़ते मामलों का ताल्लुक बढ़ी हुई टेस्टिंग से है।
बीते आठ महीनों से कोविड-19 भारत में एंडेमिक बन चुका है। प्राकृतिक संक्रमण या वैक्सीनेशन के कारण लोगों में प्राकृतिक रूप से उसके प्रति इम्युनिटी विकसित हो चुकी है। अब अगर कोविड का कोई नया खतरनाक वैरिएंट सामने नहीं आता है तो हम उसे आरामदायक तरीके से भुला सकते हैं।
ये सच है कि इस मौसम में लोगों को साधारण सर्दी-जुकाम हो रहा है, पर एच3एन2 फ्लू के इर्द-गिर्द चल रही बहस भी अतिरंजित है। इसे नया वायरस बताकर इसकी तुलना कोविड से की जा रही है। ये दोनों ही बातें सही नहीं हैं। एच3एन2 वास्तव में इंफ्लूएंजा विषाणुओं के समूह का एक उपवर्ग है, जो बीती एक सदी से जाना हुआ है। यह सबसे पहले 1968 में तेजी से प्रसारित हुआ था, जिसकी वजह से महामारी की स्थिति निर्मित हुई थी। इसकी तुलना में कोविड एक पूर्णतया नया वायरस था।
दूसरे, एच3एन2 के इलाज के लिए पहले से ही प्रभावी एंटी-वायरल दवाइयां और वैक्सीनें उपलब्ध हैं। भारत में एच3एन2 फ्लू के चलते हुई मृत्युएं भी खबरों में आई हैं, जैसे कि यह पहली बार हुआ हो। आज पूरी दुनिया में फ्लू के विषाणु सालाना 50 से 60 लाख लोगों को गम्भीर रूप से बीमार करते हैं, जिनमें से तीन लाख की मृत्यु हो जाती है।
फ्लू वायरस के सब-टाइप एक मौसमी पैटर्न का अनुसरण करते हैं और वे हर साल बदलते रहते हैं। इसमें कुछ नया नहीं है। इस साल जो नया वैरिएंट सक्रिय हो रहा है, वह एच3एन2 है। एक अन्य वैरिएंट एच1एन1 है। इम्युनिटी डेट के कारण भी अधिक मामले सामने आ रहे हैं।
इम्युनिटी डेट का मतलब है वह स्थिति, जब हम किसी कारणवश किसी वायरस के प्रति एक्सपोज नहीं होते हैं तो भविष्य में हमारे उससे रोगग्रस्त होने की सम्भावना बढ़ जाती है। बीते तीन सालों में मास्क और अन्य प्रतिबंधों के कारण लोगों का रेस्पिरेटरी वायरसों के प्रति एक्सपोजर अधिक नहीं रहा है।
यही कारण है कि अब अधिक लोग एक्सपोजर से बीमार पड़ रहे हैं। लेकिन यह चिंतित होने का कारण नहीं होना चाहिए। 5 साल से छोटे बच्चों, गर्भवती महिलाओं या 65 से अधिक आयु के बुजुर्गों के ही इससे गम्भीर रूप से बीमार पड़ने की सम्भावना अधिक है। आपको अपना डेली रूटीन बदलने की जरूरत नहीं है। इसके बजाय फ्लू से ग्रस्त व्यक्तियों के सीधे सम्पर्क में आने से बचने की सावधानी बरती जा सकती है।
एच3एन2 फ्लू से निदान के लिए कोई एंटीबायोटिक्स उपलब्ध नहीं है। इस पर एंटी-वायरल ही कारगर साबित हो सकता है। लेकिन यह हमारे लिए आत्ममंथन का अवसर होना चाहिए कि कोविड महामारी के बावजूद संक्रामक बीमारियों से निपटने की हमारी शैली में कोई बदलाव नहीं आया है।
सरकार का कम्युनिकेशन तंत्र भी लचर है और लोगों में घबराहट फैलाने का काम करता है। स्वास्थ्य सम्बंधी गम्भीर मामलों में प्रेसवार्ता की प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए, जैसा कि कोविड के दौरान किया गया था। हड़बड़ी में स्कूल आदि बंद करा देना समाधान नहीं है।
टीवी और न्यूज मीडिया की रिपोर्टिंग आज भी सनसनी से प्रेरित बनी हुई है और उसमें गहराई का अभाव नजर आता है। जबकि स्वास्थ्य सम्बंधी मसलों की संजीदगी से रिपोर्टिंग करना बेहद जरूरी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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